Kabir Ke Dohe |कबीरदास जीवन परिचय
कबीर के दोहे
कबीरदास जीवन परिचय
कबीर को ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख और प्रतिनिधि कवि के रूप में माना जाता है। उनका जन्म सन् 1398 ई. में काशी में हुआ था। यह मान्यता है कि कबीर का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। उन्होंने लोक लाज से डरते हुए कबीर को तालाब के किनारे स्थित लहरतारा नामक स्थान पर छोड़ दिया था। वहीं से निर्दोष नीरु-नीमा गुज़र रहे थे, जिन्होंने बालक कबीर का पालन किया था। विधवा ब्राह्मणी और नीरु-नीमा की संयोगित यह प्रेमपूर्ण कथा है कि कबीर को उनकी देखभाल में पाला गया।
तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ ॥
इस दोहे के माध्यम से प्रकट होता है कि हमें अहंकार से मुक्त होकर अपने स्वभाव के प्रति समर्पित होना चाहिए।
यह दोहा हमें बताता है कि अहंकार और अहंकार में फंसे रहने के परिणामस्वरूप हम अपने स्वार्थ के बंधन में आकर अपने आप को खो देते हैं। हमें अपने सत्तायामक स्वरूप को पहचानना चाहिए, जो हमें सच्चे आत्मा के साथ जोड़े हुए है। इस प्रक्रिया में अहंकार की बलि चढ़ जाती है और हम अपने असली रूप को देख सकते हैं। यह हमें एक प्रगट और सुखी जीवन की ओर प्रेरित करता है, जहां हम स्वयं को नहीं देखते बल्कि सबको देखते हैं।
इसलिए, हमें अहंकार के बंधन से मुक्त होने के लिए प्रयास करना चाहिए और सत्य और प्रेम की दिशा में अपना मनोवृत्ति सुधारना चाहिए।
मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥
इस दोहे के माध्यम से स्पष्ट होता है कि हमें अपने अहंकार को छोड़कर सत्यता को स्वीकार करना चाहिए। यह दोहा हमें यह बताता है कि हमारी अस्तित्व की सच्चाई है कि हम मात्र साधारण भूमिका निभाने वाले हैं और सब कुछ ईश्वर की सृष्टि है। हमें इस बात का अवगत होना चाहिए कि हम अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ नहीं करते हैं, बल्कि हम ईश्वर की इच्छा और कर्म के अनुसार चलते हैं। हमारा आत्मानुभव हमें यह समझाता है कि हमारा स्वार्थ वास्तव में हमारा नहीं है, बल्कि यह सब कुछ ईश्वर के हाथों में है।
इसलिए, हमें अहंकार को छोड़कर समर्पण और सेवा की भावना से जीना चाहिए, क्योंकि हमारा सच्चा महत्व ईश्वरीय आदर्शों के प्रति हमारे प्रयासों और यत्नों में निहित है।
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥
इस दोहे के माध्यम से प्रकट होता है कि प्रेम और भावनाओं का महत्व पढ़ाई से कहीं अधिक होता है। यह दोहा हमें यह सिखाता है कि पुस्तकों की अध्ययन के बिना कोई भी पंडित नहीं बन सकता है। असली ज्ञान और समझ उस प्रेम के माध्यम से हासिल होता है जो हम दूसरों के प्रति रखते हैं। पंडितत्व वास्तव में वह हृदयिक गुण है जो हमें समस्त मानवता के प्रति समर्पित बनाता है।
इसलिए, हमें पुस्तकों के अतिरिक्त संवाद, समझदारी और प्रेम की महत्वपूर्णता को समझना चाहिए। अच्छे ज्ञान के साथ-साथ हमें अपने हृदय को खुला और प्रेमपूर्ण रखने की आवश्यकता है, क्योंकि सच्चा ज्ञान वही होता है जो हमें एक उच्चतम और सामरिक जीवन की ओर प्रेरित करता है।
कबीर माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम।
मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देई राम॥
इस दोहे के माध्यम से स्पष्ट होता है कि माया और पाप हमें भगवान से दूर ले जाते हैं। यह दोहा हमें यह बताता है कि माया के मोह और पाप की आक्रांता से हम भगवान की सेवा से दूर हो जाते हैं। हमें अपने वचनों और कार्यों में दूषित भावनाओं को नहीं जगाना चाहिए, क्योंकि यह हमें भगवान के नाम को अपवित्र कर देता है।
इसलिए, हमें माया के प्रति सावधान रहना चाहिए और सत्य, प्रेम और धर्म के मार्ग में अपना जीवन चलाना चाहिए। यह हमें सच्चे आनंद, स्वतंत्रता और ईश्वरीय समर्पण की ओर प्रेरित करता है।
जिस मरनै थै जग डरै, सो मेरे आनंद।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥
इस दोहे के माध्यम से स्पष्ट होता है कि जब हम मरते हैं, तब दुनिया डरती है, लेकिन यह हमारी आनंद की स्थिति है। यह दोहा हमें यह बताता है कि मरने से हमारा आनंद उत्पन्न होता है। हमें मृत्यु का समय नहीं पता चलता और हम ईश्वर के पूर्ण आनंद को प्राप्त करते हैं। इस प्रक्रिया में हमारा भय मिट जाता है और हम अपनी अस्तित्व की सच्चाई को अनुभव करते हैं।
इसलिए, हमें आनंदपूर्वक जीना चाहिए और मृत्यु के प्रति डरने की जगह अपनी आत्मा के पूर्ण और अनंत आनंद को प्राप्त करने का समय निकालना चाहिए। हमें ईश्वरीय परमानंद के दिशा में प्रयास करना चाहिए, क्योंकि वही हमारे असली स्वरूप का स्रोत है।
बेटा जाए क्या हुआ, कहा बजावै थाल।
आवन जावन ह्वै रहा, ज्यौं कीड़ी का नाल॥
हे प्राणी बेटा पैदा होने पर तू थाली बजाकर इतनी खुशियां क्यों जता रहा है? जीव तो चौरासी लाख योनियों में वैसे ही आता-जाता रहता है यानि जन्म लेता और मृत्यु को प्राप्त होता रहा है, जैसे जल से युक्त नाले में कीड़े पैदा होते और मरते रहते हैं।
मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीति।
कहै कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीति॥
मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीति।
कहै कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीति॥
यह दोहा दर्शाता है कि हार और जीत सिर्फ मन की अंतर्मुखी संघर्ष से होते हैं। कवि कहते हैं कि जो मन हार जाता है, वह वास्तविक रूप से हार जाता है, जबकि जो मन को जीत लेता है, वही वास्तविक विजेता होता है। कबीर यह कहते हैं कि हमें अपने मन को हरि (ईश्वर) को प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि ईश्वरीय अनुभव केवल मन के भांति होता है। इस प्रकार, कवि हमें मन की परतीति (अंतरंग उपलब्धि) के माध्यम से ईश्वरीय अनुभव की प्राप्ति की सलाह देते हैं।
अत: मनोबल सदैव ऊंचा रखना चाहिए
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥
यह दोहा दर्शाता है कि पहले जब हम अज्ञानी थे, तब हमारे अंदर ईश्वर की प्रतिष्ठा नहीं थी, लेकिन अब हम अज्ञान से पार हो चुके हैं और हमारे अंदर ईश्वरीय उपस्थिति है। जब हम अज्ञान के अंधकार से उबरकर ईश्वरीय प्रकाश को देखते हैं, तब सभी अंधकार मिट जाते हैं। इस तरह, हमें यह ज्ञात होता है कि हमारा सच्चा स्वरूप ईश्वरीय है और हम अपने अंदर उसे पहचान सकते हैं।
अत: हमें अहंकार को दूर करके अपनी स्वभाविक और आध्यात्मिक स्वरूप के प्रति समर्पित होना चाहिए ,ताकि हम ईश्वर का आनंद और आत्मानुभूति को प्राप्त कर सकें।
प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरूँ, प्रेमी मिलै न कोइ।
प्रेमी कूँ प्रेमी मिलै तब, सब विष अमृत होइ॥
यह दोहा प्रेम की महत्ता को व्यक्त करता है। यह कहता है कि मैं प्रेमी को ढूंढ़ता रहता हूँ, लेकिन प्रेमी कोई भी मिलता नहीं है। प्रेमी को सिर्फ दूसरा प्रेमी ही मिलता है, जब हम अपने आप को प्रेम में समर्पित करते हैं तब सभी विषयों को अमृत बना देते हैं।
इस तरह, प्रेम हमारे जीवन का आधार होता है और हमें स्वयं प्रेमी बनना चाहिए ताकि हमें अपने चारों ओर के जगत को आनंदमय बना सकें।
सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥
यह दोहा बताता है कि सुखी होना संसार का सबसे बड़ा धन है, जो खाता है और सोता है। वही दुखी होता है जो दास कबीर है और जागता है और रोता है। इसका अर्थ है कि सुखी होने के लिए हमें अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानना और समझना चाहिए, जो हमें सब के भाग्य के साथ साथ खुशियां प्रदान करता है। उसी प्रकार, हमें दुःख के कारणों को जाग्रत करना चाहिए और रोना नहीं, बल्कि दुःख को पहचानना और समझना चाहिए। यह हमें सामरिक और मनोवैज्ञानिक संतुलन की ओर प्रेरित करता है।
साँच बराबरि तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै साँच है ताकै हृदय आप॥
यह दोहा हमें यह सिखाता है कि सत्यता तपस्या के समान नहीं है, और झूठ पाप के समान है। जिसके हृदय में सत्यता है, वही सच्ची तपस्या करता है। इसका अर्थ है कि हमें अपने मन को ईमानदार और सत्यनिष्ठ बनाना चाहिए, क्योंकि वही हमारी आत्मिक तपस्या का संकेत है। जब हम अपने हृदय में सत्य को स्थापित करते हैं, तब हम अपने मन को पवित्र बनाते हैं और सामरिक तथा आध्यात्मिक विकास की ओर प्रगामी होते हैं।
काबा फिर कासी भया, राम भया रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठ कबीर जीम॥
इस दोहे में कवि कहते हैं कि काबा फिर कासी बन गया है और राम और रहीम सबके अंदर हैं। जैसे मोटा चून और मैदा मिलकर एक हो जाते हैं, वैसे ही कबीर बैठकर एकता का प्रतीक हैं। इसका अर्थ है कि ईश्वर की प्रतिष्ठा को सिर्फ एक स्थान के साथ नहीं सीमित किया जा सकता है। ईश्वर ने विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के रूप में अपने आप को प्रकट किया है। जब हम अपने मन को पवित्र बनाते हैं और एकजुट होकर सभी के भाग्य को सुधारते हैं, तब हम कबीर की तरह ईश्वरीय एकता को अनुभव करते हैं।
इसलिए, हमें विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के बीच एकता का संदेश समझना चाहिए और सभी को सम्मान और प्यार के साथ आपसी सहयोग में बैठना चाहिए।
हम भी पांहन पूजते, होते रन के रोझ।
सतगुरु की कृपा भई, डार्या सिर पैं बोझ॥
यह दोहा हमें बताता है कि हम भी पुरानी परंपराओं को मान्यता देकर राम के नाम की पूजा करते थे, लेकिन हमारे अंदर धार्मिक ज्ञान की कमी थी। फिर से सत्गुरु की कृपा हुई और हमारी भारी संकटों और बोझों से छुटकारा मिला।
इसका अर्थ है कि हमें अपनी आध्यात्मिक ज्ञान की पहुंच को पहचानना चाहिए और सत्गुरु की कृपा और मार्गदर्शन के माध्यम से अपने अंदर के भार को दूर करना चाहिए। इस प्रकार, हम अपने जीवन को धार्मिकता, सच्चा ज्ञान और अंतरंग शांति से पूर्ण कर सकते हैं।
सब जग सूता नींद भरि, संत न आवै नींद।
काल खड़ा सिर ऊपरै, ज्यौं तौरणि आया बींद॥
सारा संसार नींद में सो रहा है किंतु संत लोग जागृत हैं। उन्हें काल का भय नहीं है, काल यद्यपि सिर के ऊपर खड़ा है किंतु संत को हर्ष है कि तोरण में दूल्हा खड़ा है। वह शीघ्र जीवात्मा रूपी दुल्हन को उसके असली घर लेकर जाएगा।
इसका अर्थ है कि जब काल (समय) निकट होता है, तब उन्हें अपनी मायावी नींद से जागृत होना चाहिए और अपनी आत्मिक साधना के लिए तत्पर होना चाहिए। इस प्रकार, यह दोहा हमें अपने जीवन में आध्यात्मिक जागरूकता की अहमियत को समझाता है और हमें सत्य की खोज में लगने के लिए प्रेरित करता है।
साँई मेरा बाँणियाँ, सहजि करै व्यौपार।
बिन डाँडी बिन पालड़ै, तोलै सब संसार॥
इस दोहे में कहा गया है कि साईं (ईश्वर) ही मेरा व्यापारी है और वह स्वभाव से ही व्यापार करता है। बिना धंधे और साधनों के, वह सभी जगत को तोलता है। इसका अर्थ है कि ईश्वर ही सभी गतिविधियों का कार्यकर्ता है और वह समस्त संसार को निरंतर मापता रहता है। इस दोहे में एकता, समता और ईश्वरीयता का संदेश है। हमें ईश्वरीय परम्पराओं को समझना और अपने अंदर की ईश्वरीय प्रतिष्ठा को समझना चाहिए।
इस प्रकार, हम ईश्वर के साथ एकता में जीने का उपदेश प्राप्त करते हैं और सभी जीवों को सम्मान और प्रेम के साथ संबोधित करने का ध्येय रखते हैं।
जौं रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तौ राम रिसाइ।
मनहीं माँहि बिसूरणां, ज्यूँ धुँण काठहिं खाइ॥
यह दोहा हमें बताता है कि जब हम रोते हैं, तब हमारी शक्ति कम होती है, लेकिन जब हम हँसते हैं, तब हमें राम (ईश्वर) की कृपा प्राप्त होती है। यह कहता है कि मन के अन्दर दुख से अलग होने पर ही असली सुख मिलता है, जैसे कि काठ को चीरकर ही उसकी भीतर छिपी अग्नि निकलती है। इसका अर्थ है कि हमें मन के बाहरी परिस्थितियों से परे दुःख को देखना और अपनी आंतरिक शक्ति को पहचानना चाहिए।
जब हम निरंतर साधना, आध्यात्मिकता और प्रेम के माध्यम से अपने मन को शुद्ध करते हैं, तब हम अपने आंतरिक स्वभाव की प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हैं और असली आनंद को अनुभव करते हैं।
बिरह जिलानी मैं जलौं, जलती जलहर जाऊँ।
मो देख्याँ जलहर जलै, संतौ कहा बुझाऊँ॥
इस दोहे में कहा गया है कि मैं विरह को जलाता हूँ और जलती ज्वाला के साथ चलता हूँ। मैं उस ज्वाला को देखता हूँ जो जलती रहती है, लेकिन संत कहते हैं कि उसे कैसे बुझाऊँ॥ इसका अर्थ है कि मैं अपने अद्भुत और विशाल विरह के आग को बढ़ाता हूँ, जो मेरे मन को जलाती रहती है, लेकिन संत कहते हैं कि कैसे मैं उसे बुझा सकूँ॥ यह दोहा हमें अपने अंदर की आग्नि की प्रतिष्ठा को समझने के लिए प्रेरित करता है। हमें विरह और अलगाव की आग को अपने अंदर भक्ति, साधना और प्रेम के माध्यम से बुझाना चाहिए।
इस प्रकार, हम अपने मन को शांत, प्रगामी और ईश्वरीयता के साथ समृद्ध कर सकते हैं।
चाकी चलती देखि कै, दिया कबीरा रोइ।
दोइ पट भीतर आइकै, सालिम बचा न कोई॥
यह दोहा हमें एक महत्वपूर्ण सत्य को समझाता है। कबीर जी ने देखा कि चाकी (चक्की) चल रही है, लेकिन उन्होंने देखा कि चाकी में पट्टे (बाटे) दोनों तरफ चल रहे हैं। ऐसी स्थिति में सालिम (बाहरी समस्याएं) कोई भी बचाने की कोशिश नहीं कर रहा है। इस दोहे के माध्यम से कबीर जी हमें यह सिखाते हैं कि हमें अपने अंदर की विभिन्न द्वंद्वों को समझना चाहिए और उन्हें संतुलित रखने की कोशिश करनी चाहिए। जब हम अपनी आंतरिक समस्याओं और बाहरी परेशानियों के बीच संतुलन बनाए रखते हैं, तब हम अपने जीवन में स्थिरता, शांति और समृद्धि की प्राप्ति करते हैं।
कबीर कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।
गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ॥
इस दोहे का अर्थ है कि कबीर जी कहते हैं कि कुत्ता भी राम का होता है, यानी उसमें भी ईश्वर का आंश होता है। मुतिया (पट्टा) मेरा होने के कारण मैं उसका मालिक हूँ। और मेरे गले में राम की जेवड़ी है, जिसे जितना खींचूं, उतना ही आगे बढ़ जाता है॥ इस दोहे में कबीर जी आत्मा के आंतरिक स्वरूप और ईश्वर के संबंध की महत्वपूर्ण बात करते हैं। उन्होंने कहा है कि हर जीव ईश्वर का हिस्सा है और उन्हें अपनी आत्मा की पहचान करनी चाहिए। जितना हम अपनी आत्मा की ओर खींचते हैं, उतना ही हमारा आंतरिक समृद्धि और आध्यात्मिक उन्नति होती है।
इस प्रकार, हमें आत्मा की महत्ता को समझने और ईश्वर के साथ संबंध स्थापित करने की ओर अग्रसर रहना चाहिए।
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
बूँद समानी समुंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥
इस दोहे में कबीर जी अपनी सखी (मित्र) से कहते हैं कि वे हीरे की तरह चमकते हैं और उन्हें देखकर हीरे की तुलना होती है। जैसे समुद्र में एक बूँद डूबती है और वह वहीं गुम हो जाती है॥ इसका अर्थ है कि कबीर जी अपने अंदर की अनमोलता को समझते हैं और वे उसे दुनिया के सामरिक तत्वों से अलग रखते हैं। जैसे समुद्र में एक बूँद डूबती है और वह अपनी पहचान खो जाती है, वैसे ही कबीर जी भी अपने आंतरिक समृद्धि को दुनिया के सामाजिक मानकों से अभियांत्रित नहीं करते हैं।
इस प्रकार, यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें अपनी अनमोलता को समझना चाहिए और उसे खोजने के लिए दुनियादारी के परदे को पार करना चाहिए। हमें अपने स्वभाव के गहराईयों में जाकर अपने सत्य को पहचानना चाहिए।
पाणी ही तैं पातला, धूवां हीं तैं झींण।
पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीरै कीन्ह॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि पानी ही पतला होता है, और धूप हीं झींणी बनाती है। हवा भी बेहद उतावली होती है, जब तक कबीर जी के दोस्त ने इसे छू नहीं लिया॥ इसका अर्थ है कि सत्य हमेशा सरल और निर्मल होता है, जैसे पानी होता है। जैसे धूप हीं वस्त्रों को साफ़ करती है, वैसे हीं सत्य हीं हमारी आत्मा को पवित्र करता है। हवा भी उतावली होती है, जब तक कबीर जी के दोस्त ने उसे छूना नहीं सीखा॥
इस प्रकार, यह दोहा हमें सत्य की महत्ता को समझाता है और हमें सत्य को अपने जीवन में स्वीकारने की प्रेरणा देता है। हमें अपने सत्य को खोजने और अपने अंदर की आत्मिक शुद्धि को पहचानने की जरूरत है।
सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि वे सात समंदों की मसी (लेपने) करते हैं और उन्हें लेखनी के रूप में बना देते हैं। वे धरती को सब कागज़ कर देते हैं, लेकिन फिर भी हरि (ईश्वर) के गुणों को लिखने में समर्थ नहीं होते॥ इसका अर्थ है कि कबीर जी अपने जीवन में अद्वितीय और अनंत ईश्वरीय गुणों का अनुभव करते हैं और उन्हें अपने काव्य में प्रकट करने की कोशिश करते हैं। वे सभी प्राकृतिक और मानवीय तत्वों को एक विशेषता के रूप में देखते हैं। लेकिन फिर भी, ईश्वर के गुणों को लिखने में कबीर जी को शब्दों की पर्याप्तता नहीं मिलती है॥
इस प्रकार, यह दोहा हमें ईश्वर के अनंत गुणों की महत्वपूर्णता को बताता है और हमें यह समझाता है कि ईश्वर के गुणों को संक्षेप में लिखना संभव नहीं है। हमें ईश्वर के अद्वितीयता का आदर्श धारण करने और उसे समझने की आवश्यकता है।
हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जले ज्यूँ घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि हाड़ जलती है जैसे लकड़ी जलती है, और बाल जलते हैं जैसे घास जलती है। जब कबीर जी ने देखा कि सभी शरीर जल रहे हैं, तब वे उदास हो गए॥ इसका अर्थ है कि जैसे हमारे शरीर की अंतिम रक्तधारा हाड़ और बाल हैं, वे भी जल रहे हैं और कच्चे भाषा में कहें तो जल रहे हैं। जब कबीर जी ने यह देखा कि सभी शरीर जल रहे हैं, तो उन्हें उदासीनता महसूस हुई॥
यह दोहा हमें यह बताता है कि हमारे शरीर की अस्थियों और बालों की तुलना में हमारा अस्थायी शरीर अत्यंत नाशवान है। इस प्रकार, हमें अपने शरीर की अनित्यता को समझने और आत्मीयता की खोज में अग्रसर रहने की आवश्यकता है।
कबीर यहु घर प्रेम का, ख़ाला का घर नाँहि।
सीस उतारै हाथि करि, सो पैठे घर माँहि॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि घर प्रेम का होता है, और खाला (आसान काम नहीं) होता। जब हम अपने सिर उतारकर हाथ में रखते हैं, तब हमारा घर अपने ही अंदर में स्थित हो जाता है॥ इसका अर्थ है कि प्रेम और भगवान की भक्ति जैसे मानसिक आदर्श और उद्धारण होते हैं। जब हम अपने मन को शांत करके आत्मीयता की खोज में लगते हैं, तब हम अपने अंदरीय गहराइयों में एक आध्यात्मिक गृह में स्थान बना सकते हैं । ।
इस प्रकार, यह दोहा हमें संसारिक और आत्मिक मान्यताओं के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने की महत्वपूर्णता को बताता है और हमें उदाहरण के माध्यम से यह सिखाता है कि हमें अपने आंतरिक दरबार में आत्मा की प्रतिष्ठा को स्थापित करने की आवश्यकता है।
माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर।
आसा त्रिष्णाँ नाँ मुई, यौं कहै दास कबीर॥
इसका अर्थ है कि माया ने हमारे मन को मोहित नहीं किया है, बल्कि हमारे शरीर हमेशा मरते रहते हैं। हमारी आसा और तृष्णा भी मरती नहीं हैं, ऐसा कबीर जी कहते हैं। यह दोहा हमें यह सिखाता है कि माया की मोहिनी शक्ति से हमें अलग रहने की आवश्यकता है। हमें अपनी आसाओं और लालसाओं को परित्याग करने की आवश्यकता है और ईश्वरीय उद्धार की ओर प्रयास करने की आवश्यकता है।
इस प्रकार, हमें अपने अंदर की सत्यता और मुक्ति की खोज में अग्रसर रहने की प्रेरणा मिलती है।
माली आवत देखि के, कलियाँ करैं पुकार।
फूली-फूली चुनि गई, कालि हमारी बार॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि माली (बागवान) जब आता है और कलियों की पुकार सुनता है, तो वह हमारी कालियों को चुन लेता है। हमारी कालियों में से हर एक खिल गई है, क्योंकि हमारी बारी आ गई है॥ इसका अर्थ है कि जब हमारा समय आता है और ईश्वरीय कृपा की आवश्यकता होती है, तो हमारी आत्मा के सभी गुणों का परिणाम दिखाई देता है। हमारी साधनाओं और परिश्रमों के फलस्वरूप हमारी आत्मा शुद्ध हो जाती है॥ इस प्रकार, यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें अपने आंतरिक स्वरूप को परिशुद्ध करने की जरूरत है और ईश्वर के आगमन का अपेक्षित समय होने पर हमें तैयार रहना चाहिए।
हमें समय के साथ समय पर सही क्रियाएं करनी चाहिए ताकि हम आध्यात्मिक उन्नति के अवसर को न छूटें।
चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति।
जे जन बिछूटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति॥
रात के समय में अपने प्रिय से बिछुड़ी हुई चकवी (एक प्रकार का पक्षी) प्रातः होने पर अपने प्रिय से मिल गई। किंतु जो लोग राम से विलग हुए हैं, वे न तो दिन में मिल पाते हैं और न रात में। इसका अर्थ है कि जब चकवी रात के अंधकार से मुक्त हो जाती है और सुबह को आनंदित होती है, तब उसे रात्रि का अनुभव नहीं होता है। उसी तरह, जो व्यक्ति ईश्वर से अलग हो जाते हैं, उन्हें अज्ञान और अंधकार की अनुभूति नहीं होती है, केवल आनंद और प्रकाश का अनुभव होता है॥ यह दोहा हमें बताता है कि जब हम ईश्वर की भक्ति और आत्मानुभूति में लगते हैं, तब हम अज्ञानता और अंधकार के प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं। हमारे आसपास की जगह के बजाय हम आनंद, ज्ञान और प्रकाश का अनुभव करते हैं।
इस प्रकार, हमें यह सिखाता है कि हमें ईश्वरीय सन्देशों को सुनने और उनके प्रकाश को आत्मसात करने की आवश्यकता है।
नैनाँ अंतरि आव तूँ, ज्यूँ हौं नैन झँपेऊँ।
नाँ हौं देखौं और कूँ, नाँ तुझ देखन देऊँ॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि तू मेरे अंदर ही आ रहा है, जैसे मैं नदी को देखता हूं और नदी मुझे देखती है। मैं तुझे देखता हूं और तू मुझे देखने दे॥ इसका अर्थ है कि तू अपने अंतरंग स्वरूप में मेरे पास आ रहा है, जैसे मैं अपनी नदी को देखता हूं और वह मुझे देखती है। मैं तुझे देखता हूं और तू मुझे अपनी प्रतिबिंबितता को दिखाने दे॥ यह दोहा हमें बताता है कि हमें अपने अंदर की आत्मा और ईश्वर की उपस्थिति को पहचानने की आवश्यकता है। हमारी आंतरिक दृष्टि के माध्यम से हम अपने आप में ईश्वर को पहचानते हैं और वह हमें अपनी प्रतिबिंबितता में दिखाई देता है।
इस प्रकार, हमें यह सिखाता है कि ईश्वरीय अनुभव के लिए हमें अपने मन की शांति को बनाए रखना चाहिए और ईश्वर के साथ अंतर्दृष्टि का संवाद स्थापित करना चाहिए।
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तासका, जे चले हमारे साथि॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि हमने अपने घर को जालियों से बांधा है और अपनी इच्छा को प्राप्त कर लिया है। अब हम अपने घर को घाटी में ले जाने के लिए तैयार हैं, जहां हमारे साथ चलने वाले हैं॥ इसका अर्थ है कि हमने अपने जीवन को साधनाओं और आस्तिकता के संरक्षण में बांध लिया है और अपनी मुरादों को प्राप्त कर लिया है। अब हम अपने आध्यात्मिक सफ़र के लिए तैयार हैं, जहां हमारे साथ चलने वाले हैं॥ यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें अपने घर को व्यवस्थित और साधनात्मक बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए और ईश्वर की मुख्य मुराद को प्राप्त करने के लिए अपने जीवन को समर्पित करना चाहिए।
हमें अपने साथ आध्यात्मिक संगठन में चलने के लिए अपने प्राथमिक लक्ष्य को निर्धारित करना चाहिए और सदैव ईश्वर के साथ साथी के रूप में समर्पित रहना चाहिए।
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछांणि॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि मन मथुरा है, दिल द्वारिका है और शरीर काशी को जानता है। दसवां द्वारा आत्मा को देह से अलग कर दो, तब तुम ज्योति को प्राप्त करोगे॥ इसका अर्थ है कि हमारा मन मथुरा है, हमारा दिल द्वारिका है और हमारी शरीर काशी को जानती है। अपने दसवें द्वार के माध्यम से हमें अपनी आत्मा को शरीर से अलग कर देना चाहिए, तब हम आत्मिक ज्योति को प्राप्त करेंगे॥ यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमारे मन को मथुरा के समान पवित्र बनाना चाहिए, हमारे दिल को द्वारिका की तरह प्रेमपूर्ण बनाना चाहिए और हमें अपने शरीर को काशी के समान पवित्र और अत्यंत समर्पित बनाना चाहिए।
इस प्रकार, हमें यह समझाता है कि हमें आत्मिक ज्योति को प्राप्त करने के लिए अपने शरीर की सांसारिक मोहमाया से ऊपर उठने की आवश्यकता है।
कलि का बामण मसखरा, ताहि न दीजै दान।
सौ कुटुंब नरकै चला, साथि लिए जजमान॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि कलियुग के ब्राह्मण मसखरे को दान नहीं देना चाहिए। सौ कुटुंब नरक की ओर जा रहे हैं, जो साथी और जजमान के साथ उनके राज्य को ले जा रहे हैं॥ इसका अर्थ है कि कलियुग में अध्यात्म और नैतिकता के भ्रष्ट ब्राह्मण व्यक्ति को दान नहीं देना चाहिए। वे सभी परिवार नरक की ओर जा रहे हैं, जो उनके संगीत और प्रशासकों के साथ उनकी न्यायिक सत्ता को ले जा रहे हैं॥ यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें अपने दान को सत्य, शुद्धता और नैतिक मूल्यों के साथ चुनना चाहिए।
हमें कलियुग की माया के द्वारा लुभाने से बचना चाहिए और अपने परिवार के साथ ईश्वरीय गुणों का संचार करने के लिए सहयोग करना चाहिए।
सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि सतगुरु की कृपा से हमने अपनी रीझ को मिलाकर एक उपयोगी सन्देश कहा है। प्रेम की बारिश हुई है, जिससे हमारे सभी अंग भीग गए हैं॥ इसका अर्थ है कि सतगुरु की कृपा से हमने अपने जीवन को सुधार करने का सन्देश दिया है। प्रेम की बारिश आई है, जिससे हमारी सभी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक क्षेत्रों में प्रभाव हुआ है॥ यह दोहा हमें यह सिखाता है कि सतगुरु का महत्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमें उनके उपदेशों का सम्मान करना चाहिए और उनके द्वारा उपहारित प्रेम की वृष्टि को स्वीकार करना चाहिए।
इस प्रकार, हमें यह सिखाता है कि प्रेम और सत्य की बारिश के माध्यम से हमारा जीवन पूर्णता की ओर प्रगट हो रहा है।
नर-नारी सब नरक है, जब लग देह सकाम।
कहै कबीर ते राम के, जैं सुमिरैं निहकाम॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि जब तक मनुष्य अपने शरीर में सकामता के साथ बंधा हुआ है, तब वह सभी पुरुष और स्त्री नरक में ही होते हैं। कबीर जी कहते हैं कि उन्हें राम की ओर से यह संदेश मिला है कि जब तक हम निहकामता के साथ राम का स्मरण करते हैं, तब तक हम उद्धार हो जाते हैं॥ इसका अर्थ है कि जब तक हम अपने शरीर की सकामता से मुक्त होकर निःकामता के साथ ईश्वर का स्मरण करते हैं, तब तक हमारा मुक्ति प्राप्त होता है। यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें आत्मनिरीक्षण करके सभी कामनाओं को छोड़ना चाहिए और ईश्वरीय स्मरण के माध्यम से आत्मानुभव की प्राप्ति करनी चाहिए।
मुला मुनारै क्या चढ़हि, अला न बहिरा होइ।
जेहिं कारन तू बांग दे, सो दिल ही भीतरि जोइ॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि मुला मस्जिद में क्या चढ़ाते हैं, जब तक उनका मन भगवान की ओर से खुला नहीं होता। जिस कारण से तू ढोल बजा रहा है, वही दिल भीतर में छुपा हुआ है॥ इसका अर्थ है कि एक मुसलमान मुला मस्जिद में क्या चढ़ाते हैं, जब तक उनका मन भगवान की ओर से खुला नहीं होता। तू ढोल बजाने का कारण जो है, वही दिल भीतर में छुपा हुआ है॥ यह दोहा हमें यह सिखाता है कि एक व्यक्ति धार्मिक संस्थान में या धार्मिक कार्यों में भलीभांति शामिल हो सकता है, लेकिन यदि उसका मन और अंतरंग दिल ईश्वरीय भावनाओं से खुदरा है, तो उसकी धार्मिकता निरर्थक हो जाती है। इसलिए हमें अपने मन को शुद्ध करके ईश्वरीय भावनाओं को गहनतापूर्वक अपनाना चाहिए।
कबीर मरनां तहं भला, जहां आपनां न कोइ।
आमिख भखै जनावरा, नाउं न लेवै कोइ॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि मरने के स्थान में वही अच्छा है जहां कोई अपना नहीं होता। जैसे आमियों को जानवर खा जाते हैं, वैसे ही कोई नाम नहीं लेता॥ इसका अर्थ है कि मरने के स्थान में वही अच्छा है जहां हम अपने अहंकार और आगंतुकों से दूर होते हैं। जैसे जानवर आम खाते हैं और उनका कोई नाम नहीं होता, वैसे ही हमें अपनी अहंकारी पहचान को छोड़ना चाहिए और अपने अस्तित्व को अहंकार से दूर रखना चाहिए॥ यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें अपने मन की आवश्यकताओं और अहंकारी भावनाओं से पूर्णता की ओर आगे बढ़ना चाहिए। हमें नाम-अपनेपन के अलावा अच्छाई और सत्य को महत्व देना चाहिए।
अंषड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि॥
इस सुंदर दोहे में, कबीर जी आत्म-विचार और आध्यात्मिक जागरण की महत्वपूर्णता पर बल देते हैं। उन्होंने इस्तारे से अपनी आंखों को व्यक्त किया है, जो हमारी पंथ को निरंतर निगरानी करती हैं, सोचती हैं और विचार करती हैं। इसी बीच, हमारी जीभ राम के नाम की इच्छा से चिह्नित होती है, जो राम की पुकार को दोहराती है।
इस संक्षेप में इस दोहे का सार छिपा है कि हमें आत्म-विचार करने और आध्यात्मिक जागरण के माध्यम से अपने मन की अवस्था को समझना चाहिए। हमारी आंखें हमारे कर्मों और पंथ के अनुसार चलती हैं, जबकि हमारी जीभ राम के नाम के लिए विचलित होती है।
यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें स्वयं को जागृत करने और आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए अपने मन को ध्यान में रखना चाहिए।
प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न दृष्टि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥
इस प्रफुल्लित दोहे में, कबीर जी प्रेम के महत्व और उसकी सच्चाई पर चर्चा करते हैं। उन्होंने यह कहा है कि प्रेम को बाहरी क्षेत्रों में नहीं बोया जा सकता, और न ही संवेदना के माध्यम से खरीदा जा सकता है। प्रेम एक व्यापार या माल की तरह नहीं है जो खरीदा और बेचा जा सकता है। इसके बजाय, यह एक निःस्वार्थ अर्पण है, ईश्वरीय इच्छा के प्रति अविचलित समर्पण है।कबीर जी ने इसके अतिरिक्त बताया है कि बड़ी महत्वपूर्णता राजा और परजा के बीच की रुचि में होती है। जो भी अपना सिर दे देता है, वही वास्तविकता में विजयी होता है॥
यह दोहा हमें यह सिखाता है कि प्रेम को बाहरी दुनियां में नहीं ढूंढ़ना चाहिए, बल्कि हमें निःस्वार्थता, समर्पण और सम्मान के माध्यम से प्रेम को अनुभव करना चाहिए॥
हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ न जाइ खुमार।
मैमंता घूँमत रहै, नाँहीं तन की सार॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ब्रह्मा रस की महत्वपूर्णता और ईश्वरीय आनंद के अनुभव का मनोहारी वर्णन करते हैं। उन्होंने कहा है कि जो भी हरि के प्रेम और भक्ति का अमृत चख चुके हैं, वे कभी भी उस मनोहारी अवस्था से पीछे नहीं हट सकते। ईश्वरीय आनंद की यह मदिरा इतनी गहरी होती है कि यह सामान्य सांसारिक सुखों को पार कर जाती है।
कबीर जी इसके अलावा यह भी सुनाते हैं कि वे मैमंता की तरह घूमते रहते हैं, शरीर की इच्छाओं और कामनाओं से अलग होते हुए। वे ईश्वर की सार को ध्यान में लगाए रहते हैं, शारीरिक बाधाओं के सीमितताओं से पार उठते हैं।
यह संक्षेप में इस दोहे में छिपा है कि कबीर जी के शब्दों के माध्यम से हमें आत्मिक आनंद की महत्ता और इसका अनुभव करने की आवश्यकता की समझ दी जाती है। यह हमें सिखाता है कि ईश्वरीय आनंद की खोज करना मानवीय सुखों और आसक्तियों से अधिक महत्वपूर्ण है। मदिरा के उपमान के माध्यम से
यह समाप्ति संग्रहण करती है कि कबीर जी के द्वारा प्रस्तुत किए गए शब्दों के माध्यम से हमें आत्मिक आनंद की महत्वपूर्णता और उसे अनुभव करने की आवश्यकता को समझाया जाता है।
इसके साथ ही यह हमें शिक्षा देता है कि दिव्य आनंद की प्राप्ति के लिए साधनों को पारित करना, शारीरिक इच्छाओं और सांसारिक आकर्षणों से परे उठना आवश्यक है। मदिरा के उपमान के माध्यम से, कबीर जी द्वारा ईश्वरीय प्रेम और उसकी अनुभूति की गहराई को दर्शाया जाता है, जो सत्यता और मुक्ति की ओर एक अद्वितीय प्रकटन है।
सतगुर की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार॥
इस गंभीर दोहे में, कबीर जी ने सतगुरु की महिमा और उनके अनंत उपकारों का सुंदर वर्णन किया है। उन्होंने कहा है कि सतगुरु की महिमा अनंत है, उनके उपकार अनंत हैं। सतगुरु के प्रकाश से हमारी आंखें अनंत खोल दी गई हैं, हमें अनंत का दर्शन हो रहा है।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें सतगुरु की महिमा की महत्ता और उनके उपकारों का महानत्व प्रतिपादित होता है। सतगुरु हमें अद्वितीय ज्ञान का प्रदान करते हैं, हमें सत्य की दिशा में प्रेरित करते हैं और हमें आत्मिक आभास की ओर ले जाते हैं। इस दोहे में सतगुरु की अनंत महिमा का सुंदर वर्णन हुआ है, जो हमें आत्मिक प्रकाश का अनुभव कराता है और हमें आत्मा के निरंतर दर्शन में लगाता है॥
कबीर ऐसा यहु संसार है, जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के व्यौहार में, झूठै रंगि न भूलि॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने संसार की वास्तविकता को सैंबल फूल की तुलना में व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि इस संसार की स्थिति एक सैंबल फूल के समान है, जिसके दिनभर के व्यवहार में झूठे रंग लगाए जाते हैं लेकिन वह अपना सच्चा रंग कभी नहीं भूलता।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें संसार की माया की समझ और ज्ञान की महत्ता का संकेत मिलता है। कबीर जी हमें यह बताते हैं कि संसार के व्यवहार में हमारे चारों ओर झूठे रंग चढ़ाए जाते हैं, लेकिन हमें अपना आदिकालिक सत्य नहीं भूलना चाहिए। यह हमें यह याद दिलाता है कि हमें अपनी आत्मिकता के साथ सही और सत्यापन करना आवश्यक है, छिपे हुए सत्य की पहचान करना हमारी मुख्य प्राथमिकता होनी चाहिए॥
जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधा−अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने शिक्षक और छात्र के संबंध की विशेषता और उसके प्रभाव को सुंदरता से व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि जैसे अंधा गुरु भी हो सकता है, लेकिन उसका चेला सच्चा और ईमानदार होता है। अंधा अंधा ठेलियों को पिंडल में गिरते रहता है, जबकि उनके छात्र का मार्ग सुरक्षित रहता है।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें शिक्षा के महत्वपूर्ण तत्वों की जागरूकता और संबंधों की प्रमुखता का ज्ञान प्राप्त होता है। कबीर जी हमें यह बताते हैं कि शिक्षक अपूर्ण या अधिकारहीन हो सकता है, लेकिन उसके छात्र की आंतरिक सत्यता और निरंतर सत्यापन विशेषता को सदैव सम्मान देना चाहिए। यह हमें यह याद दिलाता है कि एक सच्चा छात्र जीवन की अन्धकार में भी सही मार्ग पर चलता रहेगा और उसके संगठनिक विकास को आगे बढ़ाएगा॥
कबीर यहु जग अंधला, जैसी अंधी गाइ।
बछा था सो मरि गया, ऊभी चांम चटाइ॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने जगत की अंधता को एक अंधी गाय की तुलना में व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि जैसे अंधी गाय बिना देखे चलती है, वैसे ही यह जगत भी अंधा है। जो था बच्चा, सो मर गया, और जो चांदी की चांम पकड़ रही थी, वह भी छिन गई।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें जगत की भ्रमजाल और मायावीता की प्रमुखता की चेतना होती है। कबीर जी हमें यह बताते हैं कि इस संसार में अंधता है, और जो अंधेरे के भीतर चांदी की चांम पकड़ने की कोशिश करते हैं, उन्हें यहां व्यर्थ ही हानि होती है। यह हमें यह याद दिलाता है कि हमें माया की फंदों से मुक्त होना चाहिए और सत्य की दिशा में चलने के लिए आत्मनिर्भरता और ज्ञान की प्राप्ति करनी चाहिए॥
परनारी पर सुंदरी, बिरला बंचै कोइ।
खातां मीठी खाँड़ सी, अंति कालि विष होइ॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने परनारी की सुंदरता को एक मीठे खाँड़ की तुलना में व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि जैसे मीठी खाँड़ बहुत ही अल्प समय के लिए उपलब्ध होती है और अंत में विष बन जाती है, वैसे ही यह परनारी भी बहुत ही अल्पकालिक है और अंत में विषाक्त हो जाती है।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें संगीत, सौंदर्य, और भोग के आकर्षण की वेमुखता की चेतना होती है। कबीर जी हमें यह बताते हैं कि इस संसार में व्यक्तियों की आकर्षण क्षमता अल्पकालिक है और यह सुख अंततः विष बन जाता है। यह हमें यह याद दिलाता है कि हमें सुख की असाधारण और आध्यात्मिक स्वरूप की खोज करनी चाहिए, जो अंतिम तृष्णाओं और मायावी विषाक्ति से मुक्त होती है॥
खीर रूप हरि नाँव है, नीर आन व्यौहार।
हंस रूप कोइ साध है, तत का जाणहार॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने हरि के नाम को खीर की तुलना में व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि जैसे खीर में आन और व्यौहार होता है, वैसे ही हरि के नाम का महत्व और उसका व्यापारिक उपयोग होता है। कोई हंस के रूप में साधक है, वही हरि को सच्ची जानने का क्षमता रखता है।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें नाम के महत्वपूर्णता की याद दिलाई जाती है और ध्यान दिया जाता है कि ईश्वर के नाम का ज्ञान और उच्चारण हमें आत्मा के साथ एकीकृत करने की शक्ति प्रदान करते हैं। यह हमें यह याद दिलाता है कि हमें हरि के नाम की महिमा को समझने और उसे अपने जीवन में अंगीकार करने की आवश्यकता है॥
पात झरंता यों कहै, सुनि तरवर बनराइ।
अब के बिछुड़े ना मिलैं, कहुँ दूर पड़ैंगे जाइ॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने पात की झरना की तुलना में व्यक्त की है। वे कहते हैं कि जैसे पात झरना बहते हुए कहते हैं, सब बनराइ उसे सुनते हैं, वैसे ही अब जब हम अपने साथी से बिछुड़े हैं, तो हम कहते हैं कि हम दूर चले जाएंगे और वापस नहीं मिलेंगे।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें यह याद दिलाया जाता है कि जब हम अपने पार्टनर, यानी साथी से बिछुड़ जाते हैं, तो हम कहते हैं कि हम दूर चले जाएंगे और वापस नहीं मिलेंगे। यह हमें अपनी बात को स्पष्ट करने, विश्वास को जाहिर करने और दृढ़ता के साथ आगे बढ़ने की आवश्यकता है॥
जाके मुँह माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।
पुहुप बास तैं पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥
जिसके मुख और मस्तक नहीं है, न रूप है न अरूप। वह न तो रूपवान है और न रूपहीन है, पुष्प की सुगंध से भी सूक्ष्म वह अनुपम तत्त्व है। इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें यह याद दिलाया जाता है कि व्यक्ति की असली महिमा और विशेषता उसके चरित्र, नैतिकता, और भावनाओं में होती है, और न कि उसके बाहरी रूप में। हमें एक अनूपम और अमूल्यता से युक्त चरित्र का विकास करने की आवश्यकता है, जो अप्रतिम और अद्वितीय होता है॥
पाणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति।
एक दिनाँ छिप जाँहिगे, तारे ज्यूं परभाति॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने पानी की बुदबुदाहट की तुलना में हमारी जाति का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि हमारी जाति जैसे पानी की बूँदें हैं, जो एक दिन में छिप जाती हैं, वैसे ही तारों की प्रकाशमय प्रभाति की तरह।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें यह याद दिलाया जाता है कि हमारी जाति या स्थान का महत्व हमारे भावों, कार्यों, और अद्यतन जीवन में होता है। हमें तारों की प्रकाशमय प्रभाति की तरह, अपार प्रकाश और उज्ज्वलता बनानी चाहिए और अपने असीमित पोटेंशियल को प्रकट करने के लिए उच्च स्तर पर उठने की आवश्यकता है॥
बाग़ों ना जा रे ना जा, तेरी काया में गुलज़ार।
सहस-कँवल पर बैठ के, तू देखे रूप अपार॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने बागों की तुलना में इंसान की महत्वपूर्णता को व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि बागों में जाने की बजाय तेरी काया में गुलजार बन जा, अर्थात् अपने अंतरंग रूप को पहचानें। बस सहस-कंवल (सरस्वती के पदार्थों पर बैठने वाला) पर बैठकर तू अपार रूप को देख सकेगा॥
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें यह याद दिलाया जाता है कि बाहरी सुंदरता की बजाय, हमें अपने अंतरंग रूप को महत्व देना चाहिए। जब हम अपनी आत्मा के साथ सहस-कंवल पर बैठते हैं, तो हम अपार और अनंत रूप को पहचानते हैं॥
अंतरि कँवल प्रकासिया, ब्रह्म वास तहाँ होइ।
मन भँवरा तहाँ लुबधिया, जाँणौंगा जन कोइ॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने आत्मा की प्रकाशमयता और ईश्वर के आवास के विषय में व्यक्ति को प्रेरित किया है। वे कहते हैं कि अंतरंग कंवल में ब्रह्म निवास करता है, अर्थात् परमात्मा वहाँ विराजमान होता है। मन वहाँ भँवरा की तरह चक्रवाती होता है, लेकिन केवल कुछ जन ही उसे समझ सकते हैं॥
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें यह याद दिलाया जाता है कि आत्मा की प्रकाशमयता हमारे अंतरंग में होती है और ईश्वर का आवास हमारे हृदय में होता है। हमारा मन चक्रवाती भँवरा की तरह लुब्ध हो जाता है, लेकिन केवल कुछ व्यक्ति ही इसे समझ सकते हैं॥
समंदर लागी आगि, नदियाँ जलि कोइला भई।
देखि कबीरा जागि, मंछी रूषाँ चढ़ि गई।
इस दोहे में, कबीर जी ने समंदर और नदियों के माध्यम से एक अद्भुत संदेश दिया है। उन्होंने कहा है कि जब समंदर में आग लगी, तो नदियाँ उसे भी जला देती हैं। इसे देखकर कबीर जागते हैं, परंतु मंछी रूषा हो जाती है और उड़ जाती है॥
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें यह याद दिलाया जाता है कि जब एक बड़ी समस्या या आपदा होती है, तो उसका प्रभाव सभी को महसूस होता है। हमें समाधान के लिए सामर्थ्य और साहस की आवश्यकता होती है, जो हमें जागरूक और सक्रिय बनाते हैं॥
अस्वीकरण: ऊपर दी गई निष्कर्ष दिए गए टिप्पणियाँ दी गई कविता और साहित्यिक संदर्भ पर आधारित हैं। ये एक व्यक्तिगत समझ और दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का प्रयास हैं। इन निष्कर्षों की व्याख्या व्यक्तिगत मतभेदों, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और व्यक्तिगत समझ पर निर्भर कर सकती हैं। ये निष्कर्ष अपारंपरिक या निर्वाचित व्याख्याओं के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं करने चाहिए और पाठकों को प्रेरित किया जाता है कि वे और गद्यांश की अध्ययन करें और अपने स्वयं के निष्कर्ष निकालें।
अत: मनोबल सदैव ऊंचा रखना चाहिए
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥
यह दोहा दर्शाता है कि पहले जब हम अज्ञानी थे, तब हमारे अंदर ईश्वर की प्रतिष्ठा नहीं थी, लेकिन अब हम अज्ञान से पार हो चुके हैं और हमारे अंदर ईश्वरीय उपस्थिति है। जब हम अज्ञान के अंधकार से उबरकर ईश्वरीय प्रकाश को देखते हैं, तब सभी अंधकार मिट जाते हैं। इस तरह, हमें यह ज्ञात होता है कि हमारा सच्चा स्वरूप ईश्वरीय है और हम अपने अंदर उसे पहचान सकते हैं।
अत: हमें अहंकार को दूर करके अपनी स्वभाविक और आध्यात्मिक स्वरूप के प्रति समर्पित होना चाहिए ,ताकि हम ईश्वर का आनंद और आत्मानुभूति को प्राप्त कर सकें।
प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरूँ, प्रेमी मिलै न कोइ।
प्रेमी कूँ प्रेमी मिलै तब, सब विष अमृत होइ॥
यह दोहा प्रेम की महत्ता को व्यक्त करता है। यह कहता है कि मैं प्रेमी को ढूंढ़ता रहता हूँ, लेकिन प्रेमी कोई भी मिलता नहीं है। प्रेमी को सिर्फ दूसरा प्रेमी ही मिलता है, जब हम अपने आप को प्रेम में समर्पित करते हैं तब सभी विषयों को अमृत बना देते हैं।
इस तरह, प्रेम हमारे जीवन का आधार होता है और हमें स्वयं प्रेमी बनना चाहिए ताकि हमें अपने चारों ओर के जगत को आनंदमय बना सकें।
सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥
यह दोहा बताता है कि सुखी होना संसार का सबसे बड़ा धन है, जो खाता है और सोता है। वही दुखी होता है जो दास कबीर है और जागता है और रोता है। इसका अर्थ है कि सुखी होने के लिए हमें अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानना और समझना चाहिए, जो हमें सब के भाग्य के साथ साथ खुशियां प्रदान करता है। उसी प्रकार, हमें दुःख के कारणों को जाग्रत करना चाहिए और रोना नहीं, बल्कि दुःख को पहचानना और समझना चाहिए। यह हमें सामरिक और मनोवैज्ञानिक संतुलन की ओर प्रेरित करता है।
साँच बराबरि तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै साँच है ताकै हृदय आप॥
यह दोहा हमें यह सिखाता है कि सत्यता तपस्या के समान नहीं है, और झूठ पाप के समान है। जिसके हृदय में सत्यता है, वही सच्ची तपस्या करता है। इसका अर्थ है कि हमें अपने मन को ईमानदार और सत्यनिष्ठ बनाना चाहिए, क्योंकि वही हमारी आत्मिक तपस्या का संकेत है। जब हम अपने हृदय में सत्य को स्थापित करते हैं, तब हम अपने मन को पवित्र बनाते हैं और सामरिक तथा आध्यात्मिक विकास की ओर प्रगामी होते हैं।
काबा फिर कासी भया, राम भया रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठ कबीर जीम॥
इस दोहे में कवि कहते हैं कि काबा फिर कासी बन गया है और राम और रहीम सबके अंदर हैं। जैसे मोटा चून और मैदा मिलकर एक हो जाते हैं, वैसे ही कबीर बैठकर एकता का प्रतीक हैं। इसका अर्थ है कि ईश्वर की प्रतिष्ठा को सिर्फ एक स्थान के साथ नहीं सीमित किया जा सकता है। ईश्वर ने विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के रूप में अपने आप को प्रकट किया है। जब हम अपने मन को पवित्र बनाते हैं और एकजुट होकर सभी के भाग्य को सुधारते हैं, तब हम कबीर की तरह ईश्वरीय एकता को अनुभव करते हैं।
इसलिए, हमें विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के बीच एकता का संदेश समझना चाहिए और सभी को सम्मान और प्यार के साथ आपसी सहयोग में बैठना चाहिए।
हम भी पांहन पूजते, होते रन के रोझ।
सतगुरु की कृपा भई, डार्या सिर पैं बोझ॥
यह दोहा हमें बताता है कि हम भी पुरानी परंपराओं को मान्यता देकर राम के नाम की पूजा करते थे, लेकिन हमारे अंदर धार्मिक ज्ञान की कमी थी। फिर से सत्गुरु की कृपा हुई और हमारी भारी संकटों और बोझों से छुटकारा मिला।
इसका अर्थ है कि हमें अपनी आध्यात्मिक ज्ञान की पहुंच को पहचानना चाहिए और सत्गुरु की कृपा और मार्गदर्शन के माध्यम से अपने अंदर के भार को दूर करना चाहिए। इस प्रकार, हम अपने जीवन को धार्मिकता, सच्चा ज्ञान और अंतरंग शांति से पूर्ण कर सकते हैं।
सब जग सूता नींद भरि, संत न आवै नींद।
काल खड़ा सिर ऊपरै, ज्यौं तौरणि आया बींद॥
सारा संसार नींद में सो रहा है किंतु संत लोग जागृत हैं। उन्हें काल का भय नहीं है, काल यद्यपि सिर के ऊपर खड़ा है किंतु संत को हर्ष है कि तोरण में दूल्हा खड़ा है। वह शीघ्र जीवात्मा रूपी दुल्हन को उसके असली घर लेकर जाएगा।
इसका अर्थ है कि जब काल (समय) निकट होता है, तब उन्हें अपनी मायावी नींद से जागृत होना चाहिए और अपनी आत्मिक साधना के लिए तत्पर होना चाहिए। इस प्रकार, यह दोहा हमें अपने जीवन में आध्यात्मिक जागरूकता की अहमियत को समझाता है और हमें सत्य की खोज में लगने के लिए प्रेरित करता है।
साँई मेरा बाँणियाँ, सहजि करै व्यौपार।
बिन डाँडी बिन पालड़ै, तोलै सब संसार॥
इस दोहे में कहा गया है कि साईं (ईश्वर) ही मेरा व्यापारी है और वह स्वभाव से ही व्यापार करता है। बिना धंधे और साधनों के, वह सभी जगत को तोलता है। इसका अर्थ है कि ईश्वर ही सभी गतिविधियों का कार्यकर्ता है और वह समस्त संसार को निरंतर मापता रहता है। इस दोहे में एकता, समता और ईश्वरीयता का संदेश है। हमें ईश्वरीय परम्पराओं को समझना और अपने अंदर की ईश्वरीय प्रतिष्ठा को समझना चाहिए।
इस प्रकार, हम ईश्वर के साथ एकता में जीने का उपदेश प्राप्त करते हैं और सभी जीवों को सम्मान और प्रेम के साथ संबोधित करने का ध्येय रखते हैं।
जौं रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तौ राम रिसाइ।
मनहीं माँहि बिसूरणां, ज्यूँ धुँण काठहिं खाइ॥
यह दोहा हमें बताता है कि जब हम रोते हैं, तब हमारी शक्ति कम होती है, लेकिन जब हम हँसते हैं, तब हमें राम (ईश्वर) की कृपा प्राप्त होती है। यह कहता है कि मन के अन्दर दुख से अलग होने पर ही असली सुख मिलता है, जैसे कि काठ को चीरकर ही उसकी भीतर छिपी अग्नि निकलती है। इसका अर्थ है कि हमें मन के बाहरी परिस्थितियों से परे दुःख को देखना और अपनी आंतरिक शक्ति को पहचानना चाहिए।
जब हम निरंतर साधना, आध्यात्मिकता और प्रेम के माध्यम से अपने मन को शुद्ध करते हैं, तब हम अपने आंतरिक स्वभाव की प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हैं और असली आनंद को अनुभव करते हैं।
बिरह जिलानी मैं जलौं, जलती जलहर जाऊँ।
मो देख्याँ जलहर जलै, संतौ कहा बुझाऊँ॥
इस दोहे में कहा गया है कि मैं विरह को जलाता हूँ और जलती ज्वाला के साथ चलता हूँ। मैं उस ज्वाला को देखता हूँ जो जलती रहती है, लेकिन संत कहते हैं कि उसे कैसे बुझाऊँ॥ इसका अर्थ है कि मैं अपने अद्भुत और विशाल विरह के आग को बढ़ाता हूँ, जो मेरे मन को जलाती रहती है, लेकिन संत कहते हैं कि कैसे मैं उसे बुझा सकूँ॥ यह दोहा हमें अपने अंदर की आग्नि की प्रतिष्ठा को समझने के लिए प्रेरित करता है। हमें विरह और अलगाव की आग को अपने अंदर भक्ति, साधना और प्रेम के माध्यम से बुझाना चाहिए।
इस प्रकार, हम अपने मन को शांत, प्रगामी और ईश्वरीयता के साथ समृद्ध कर सकते हैं।
चाकी चलती देखि कै, दिया कबीरा रोइ।
दोइ पट भीतर आइकै, सालिम बचा न कोई॥
यह दोहा हमें एक महत्वपूर्ण सत्य को समझाता है। कबीर जी ने देखा कि चाकी (चक्की) चल रही है, लेकिन उन्होंने देखा कि चाकी में पट्टे (बाटे) दोनों तरफ चल रहे हैं। ऐसी स्थिति में सालिम (बाहरी समस्याएं) कोई भी बचाने की कोशिश नहीं कर रहा है। इस दोहे के माध्यम से कबीर जी हमें यह सिखाते हैं कि हमें अपने अंदर की विभिन्न द्वंद्वों को समझना चाहिए और उन्हें संतुलित रखने की कोशिश करनी चाहिए। जब हम अपनी आंतरिक समस्याओं और बाहरी परेशानियों के बीच संतुलन बनाए रखते हैं, तब हम अपने जीवन में स्थिरता, शांति और समृद्धि की प्राप्ति करते हैं।
कबीर कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।
गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ॥
इस दोहे का अर्थ है कि कबीर जी कहते हैं कि कुत्ता भी राम का होता है, यानी उसमें भी ईश्वर का आंश होता है। मुतिया (पट्टा) मेरा होने के कारण मैं उसका मालिक हूँ। और मेरे गले में राम की जेवड़ी है, जिसे जितना खींचूं, उतना ही आगे बढ़ जाता है॥ इस दोहे में कबीर जी आत्मा के आंतरिक स्वरूप और ईश्वर के संबंध की महत्वपूर्ण बात करते हैं। उन्होंने कहा है कि हर जीव ईश्वर का हिस्सा है और उन्हें अपनी आत्मा की पहचान करनी चाहिए। जितना हम अपनी आत्मा की ओर खींचते हैं, उतना ही हमारा आंतरिक समृद्धि और आध्यात्मिक उन्नति होती है।
इस प्रकार, हमें आत्मा की महत्ता को समझने और ईश्वर के साथ संबंध स्थापित करने की ओर अग्रसर रहना चाहिए।
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
बूँद समानी समुंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥
इस दोहे में कबीर जी अपनी सखी (मित्र) से कहते हैं कि वे हीरे की तरह चमकते हैं और उन्हें देखकर हीरे की तुलना होती है। जैसे समुद्र में एक बूँद डूबती है और वह वहीं गुम हो जाती है॥ इसका अर्थ है कि कबीर जी अपने अंदर की अनमोलता को समझते हैं और वे उसे दुनिया के सामरिक तत्वों से अलग रखते हैं। जैसे समुद्र में एक बूँद डूबती है और वह अपनी पहचान खो जाती है, वैसे ही कबीर जी भी अपने आंतरिक समृद्धि को दुनिया के सामाजिक मानकों से अभियांत्रित नहीं करते हैं।
इस प्रकार, यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें अपनी अनमोलता को समझना चाहिए और उसे खोजने के लिए दुनियादारी के परदे को पार करना चाहिए। हमें अपने स्वभाव के गहराईयों में जाकर अपने सत्य को पहचानना चाहिए।
पाणी ही तैं पातला, धूवां हीं तैं झींण।
पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीरै कीन्ह॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि पानी ही पतला होता है, और धूप हीं झींणी बनाती है। हवा भी बेहद उतावली होती है, जब तक कबीर जी के दोस्त ने इसे छू नहीं लिया॥ इसका अर्थ है कि सत्य हमेशा सरल और निर्मल होता है, जैसे पानी होता है। जैसे धूप हीं वस्त्रों को साफ़ करती है, वैसे हीं सत्य हीं हमारी आत्मा को पवित्र करता है। हवा भी उतावली होती है, जब तक कबीर जी के दोस्त ने उसे छूना नहीं सीखा॥
इस प्रकार, यह दोहा हमें सत्य की महत्ता को समझाता है और हमें सत्य को अपने जीवन में स्वीकारने की प्रेरणा देता है। हमें अपने सत्य को खोजने और अपने अंदर की आत्मिक शुद्धि को पहचानने की जरूरत है।
सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि वे सात समंदों की मसी (लेपने) करते हैं और उन्हें लेखनी के रूप में बना देते हैं। वे धरती को सब कागज़ कर देते हैं, लेकिन फिर भी हरि (ईश्वर) के गुणों को लिखने में समर्थ नहीं होते॥ इसका अर्थ है कि कबीर जी अपने जीवन में अद्वितीय और अनंत ईश्वरीय गुणों का अनुभव करते हैं और उन्हें अपने काव्य में प्रकट करने की कोशिश करते हैं। वे सभी प्राकृतिक और मानवीय तत्वों को एक विशेषता के रूप में देखते हैं। लेकिन फिर भी, ईश्वर के गुणों को लिखने में कबीर जी को शब्दों की पर्याप्तता नहीं मिलती है॥
इस प्रकार, यह दोहा हमें ईश्वर के अनंत गुणों की महत्वपूर्णता को बताता है और हमें यह समझाता है कि ईश्वर के गुणों को संक्षेप में लिखना संभव नहीं है। हमें ईश्वर के अद्वितीयता का आदर्श धारण करने और उसे समझने की आवश्यकता है।
हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जले ज्यूँ घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि हाड़ जलती है जैसे लकड़ी जलती है, और बाल जलते हैं जैसे घास जलती है। जब कबीर जी ने देखा कि सभी शरीर जल रहे हैं, तब वे उदास हो गए॥ इसका अर्थ है कि जैसे हमारे शरीर की अंतिम रक्तधारा हाड़ और बाल हैं, वे भी जल रहे हैं और कच्चे भाषा में कहें तो जल रहे हैं। जब कबीर जी ने यह देखा कि सभी शरीर जल रहे हैं, तो उन्हें उदासीनता महसूस हुई॥
यह दोहा हमें यह बताता है कि हमारे शरीर की अस्थियों और बालों की तुलना में हमारा अस्थायी शरीर अत्यंत नाशवान है। इस प्रकार, हमें अपने शरीर की अनित्यता को समझने और आत्मीयता की खोज में अग्रसर रहने की आवश्यकता है।
कबीर यहु घर प्रेम का, ख़ाला का घर नाँहि।
सीस उतारै हाथि करि, सो पैठे घर माँहि॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि घर प्रेम का होता है, और खाला (आसान काम नहीं) होता। जब हम अपने सिर उतारकर हाथ में रखते हैं, तब हमारा घर अपने ही अंदर में स्थित हो जाता है॥ इसका अर्थ है कि प्रेम और भगवान की भक्ति जैसे मानसिक आदर्श और उद्धारण होते हैं। जब हम अपने मन को शांत करके आत्मीयता की खोज में लगते हैं, तब हम अपने अंदरीय गहराइयों में एक आध्यात्मिक गृह में स्थान बना सकते हैं । ।
इस प्रकार, यह दोहा हमें संसारिक और आत्मिक मान्यताओं के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने की महत्वपूर्णता को बताता है और हमें उदाहरण के माध्यम से यह सिखाता है कि हमें अपने आंतरिक दरबार में आत्मा की प्रतिष्ठा को स्थापित करने की आवश्यकता है।
माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर।
आसा त्रिष्णाँ नाँ मुई, यौं कहै दास कबीर॥
इसका अर्थ है कि माया ने हमारे मन को मोहित नहीं किया है, बल्कि हमारे शरीर हमेशा मरते रहते हैं। हमारी आसा और तृष्णा भी मरती नहीं हैं, ऐसा कबीर जी कहते हैं। यह दोहा हमें यह सिखाता है कि माया की मोहिनी शक्ति से हमें अलग रहने की आवश्यकता है। हमें अपनी आसाओं और लालसाओं को परित्याग करने की आवश्यकता है और ईश्वरीय उद्धार की ओर प्रयास करने की आवश्यकता है।
इस प्रकार, हमें अपने अंदर की सत्यता और मुक्ति की खोज में अग्रसर रहने की प्रेरणा मिलती है।
माली आवत देखि के, कलियाँ करैं पुकार।
फूली-फूली चुनि गई, कालि हमारी बार॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि माली (बागवान) जब आता है और कलियों की पुकार सुनता है, तो वह हमारी कालियों को चुन लेता है। हमारी कालियों में से हर एक खिल गई है, क्योंकि हमारी बारी आ गई है॥ इसका अर्थ है कि जब हमारा समय आता है और ईश्वरीय कृपा की आवश्यकता होती है, तो हमारी आत्मा के सभी गुणों का परिणाम दिखाई देता है। हमारी साधनाओं और परिश्रमों के फलस्वरूप हमारी आत्मा शुद्ध हो जाती है॥ इस प्रकार, यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें अपने आंतरिक स्वरूप को परिशुद्ध करने की जरूरत है और ईश्वर के आगमन का अपेक्षित समय होने पर हमें तैयार रहना चाहिए।
हमें समय के साथ समय पर सही क्रियाएं करनी चाहिए ताकि हम आध्यात्मिक उन्नति के अवसर को न छूटें।
चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति।
जे जन बिछूटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति॥
रात के समय में अपने प्रिय से बिछुड़ी हुई चकवी (एक प्रकार का पक्षी) प्रातः होने पर अपने प्रिय से मिल गई। किंतु जो लोग राम से विलग हुए हैं, वे न तो दिन में मिल पाते हैं और न रात में। इसका अर्थ है कि जब चकवी रात के अंधकार से मुक्त हो जाती है और सुबह को आनंदित होती है, तब उसे रात्रि का अनुभव नहीं होता है। उसी तरह, जो व्यक्ति ईश्वर से अलग हो जाते हैं, उन्हें अज्ञान और अंधकार की अनुभूति नहीं होती है, केवल आनंद और प्रकाश का अनुभव होता है॥ यह दोहा हमें बताता है कि जब हम ईश्वर की भक्ति और आत्मानुभूति में लगते हैं, तब हम अज्ञानता और अंधकार के प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं। हमारे आसपास की जगह के बजाय हम आनंद, ज्ञान और प्रकाश का अनुभव करते हैं।
इस प्रकार, हमें यह सिखाता है कि हमें ईश्वरीय सन्देशों को सुनने और उनके प्रकाश को आत्मसात करने की आवश्यकता है।
नैनाँ अंतरि आव तूँ, ज्यूँ हौं नैन झँपेऊँ।
नाँ हौं देखौं और कूँ, नाँ तुझ देखन देऊँ॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि तू मेरे अंदर ही आ रहा है, जैसे मैं नदी को देखता हूं और नदी मुझे देखती है। मैं तुझे देखता हूं और तू मुझे देखने दे॥ इसका अर्थ है कि तू अपने अंतरंग स्वरूप में मेरे पास आ रहा है, जैसे मैं अपनी नदी को देखता हूं और वह मुझे देखती है। मैं तुझे देखता हूं और तू मुझे अपनी प्रतिबिंबितता को दिखाने दे॥ यह दोहा हमें बताता है कि हमें अपने अंदर की आत्मा और ईश्वर की उपस्थिति को पहचानने की आवश्यकता है। हमारी आंतरिक दृष्टि के माध्यम से हम अपने आप में ईश्वर को पहचानते हैं और वह हमें अपनी प्रतिबिंबितता में दिखाई देता है।
इस प्रकार, हमें यह सिखाता है कि ईश्वरीय अनुभव के लिए हमें अपने मन की शांति को बनाए रखना चाहिए और ईश्वर के साथ अंतर्दृष्टि का संवाद स्थापित करना चाहिए।
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तासका, जे चले हमारे साथि॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि हमने अपने घर को जालियों से बांधा है और अपनी इच्छा को प्राप्त कर लिया है। अब हम अपने घर को घाटी में ले जाने के लिए तैयार हैं, जहां हमारे साथ चलने वाले हैं॥ इसका अर्थ है कि हमने अपने जीवन को साधनाओं और आस्तिकता के संरक्षण में बांध लिया है और अपनी मुरादों को प्राप्त कर लिया है। अब हम अपने आध्यात्मिक सफ़र के लिए तैयार हैं, जहां हमारे साथ चलने वाले हैं॥ यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें अपने घर को व्यवस्थित और साधनात्मक बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए और ईश्वर की मुख्य मुराद को प्राप्त करने के लिए अपने जीवन को समर्पित करना चाहिए।
हमें अपने साथ आध्यात्मिक संगठन में चलने के लिए अपने प्राथमिक लक्ष्य को निर्धारित करना चाहिए और सदैव ईश्वर के साथ साथी के रूप में समर्पित रहना चाहिए।
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछांणि॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि मन मथुरा है, दिल द्वारिका है और शरीर काशी को जानता है। दसवां द्वारा आत्मा को देह से अलग कर दो, तब तुम ज्योति को प्राप्त करोगे॥ इसका अर्थ है कि हमारा मन मथुरा है, हमारा दिल द्वारिका है और हमारी शरीर काशी को जानती है। अपने दसवें द्वार के माध्यम से हमें अपनी आत्मा को शरीर से अलग कर देना चाहिए, तब हम आत्मिक ज्योति को प्राप्त करेंगे॥ यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमारे मन को मथुरा के समान पवित्र बनाना चाहिए, हमारे दिल को द्वारिका की तरह प्रेमपूर्ण बनाना चाहिए और हमें अपने शरीर को काशी के समान पवित्र और अत्यंत समर्पित बनाना चाहिए।
इस प्रकार, हमें यह समझाता है कि हमें आत्मिक ज्योति को प्राप्त करने के लिए अपने शरीर की सांसारिक मोहमाया से ऊपर उठने की आवश्यकता है।
कलि का बामण मसखरा, ताहि न दीजै दान।
सौ कुटुंब नरकै चला, साथि लिए जजमान॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि कलियुग के ब्राह्मण मसखरे को दान नहीं देना चाहिए। सौ कुटुंब नरक की ओर जा रहे हैं, जो साथी और जजमान के साथ उनके राज्य को ले जा रहे हैं॥ इसका अर्थ है कि कलियुग में अध्यात्म और नैतिकता के भ्रष्ट ब्राह्मण व्यक्ति को दान नहीं देना चाहिए। वे सभी परिवार नरक की ओर जा रहे हैं, जो उनके संगीत और प्रशासकों के साथ उनकी न्यायिक सत्ता को ले जा रहे हैं॥ यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें अपने दान को सत्य, शुद्धता और नैतिक मूल्यों के साथ चुनना चाहिए।
हमें कलियुग की माया के द्वारा लुभाने से बचना चाहिए और अपने परिवार के साथ ईश्वरीय गुणों का संचार करने के लिए सहयोग करना चाहिए।
सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि सतगुरु की कृपा से हमने अपनी रीझ को मिलाकर एक उपयोगी सन्देश कहा है। प्रेम की बारिश हुई है, जिससे हमारे सभी अंग भीग गए हैं॥ इसका अर्थ है कि सतगुरु की कृपा से हमने अपने जीवन को सुधार करने का सन्देश दिया है। प्रेम की बारिश आई है, जिससे हमारी सभी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक क्षेत्रों में प्रभाव हुआ है॥ यह दोहा हमें यह सिखाता है कि सतगुरु का महत्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमें उनके उपदेशों का सम्मान करना चाहिए और उनके द्वारा उपहारित प्रेम की वृष्टि को स्वीकार करना चाहिए।
इस प्रकार, हमें यह सिखाता है कि प्रेम और सत्य की बारिश के माध्यम से हमारा जीवन पूर्णता की ओर प्रगट हो रहा है।
नर-नारी सब नरक है, जब लग देह सकाम।
कहै कबीर ते राम के, जैं सुमिरैं निहकाम॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि जब तक मनुष्य अपने शरीर में सकामता के साथ बंधा हुआ है, तब वह सभी पुरुष और स्त्री नरक में ही होते हैं। कबीर जी कहते हैं कि उन्हें राम की ओर से यह संदेश मिला है कि जब तक हम निहकामता के साथ राम का स्मरण करते हैं, तब तक हम उद्धार हो जाते हैं॥ इसका अर्थ है कि जब तक हम अपने शरीर की सकामता से मुक्त होकर निःकामता के साथ ईश्वर का स्मरण करते हैं, तब तक हमारा मुक्ति प्राप्त होता है। यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें आत्मनिरीक्षण करके सभी कामनाओं को छोड़ना चाहिए और ईश्वरीय स्मरण के माध्यम से आत्मानुभव की प्राप्ति करनी चाहिए।
मुला मुनारै क्या चढ़हि, अला न बहिरा होइ।
जेहिं कारन तू बांग दे, सो दिल ही भीतरि जोइ॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि मुला मस्जिद में क्या चढ़ाते हैं, जब तक उनका मन भगवान की ओर से खुला नहीं होता। जिस कारण से तू ढोल बजा रहा है, वही दिल भीतर में छुपा हुआ है॥ इसका अर्थ है कि एक मुसलमान मुला मस्जिद में क्या चढ़ाते हैं, जब तक उनका मन भगवान की ओर से खुला नहीं होता। तू ढोल बजाने का कारण जो है, वही दिल भीतर में छुपा हुआ है॥ यह दोहा हमें यह सिखाता है कि एक व्यक्ति धार्मिक संस्थान में या धार्मिक कार्यों में भलीभांति शामिल हो सकता है, लेकिन यदि उसका मन और अंतरंग दिल ईश्वरीय भावनाओं से खुदरा है, तो उसकी धार्मिकता निरर्थक हो जाती है। इसलिए हमें अपने मन को शुद्ध करके ईश्वरीय भावनाओं को गहनतापूर्वक अपनाना चाहिए।
कबीर मरनां तहं भला, जहां आपनां न कोइ।
आमिख भखै जनावरा, नाउं न लेवै कोइ॥
इस दोहे में कबीर जी कहते हैं कि मरने के स्थान में वही अच्छा है जहां कोई अपना नहीं होता। जैसे आमियों को जानवर खा जाते हैं, वैसे ही कोई नाम नहीं लेता॥ इसका अर्थ है कि मरने के स्थान में वही अच्छा है जहां हम अपने अहंकार और आगंतुकों से दूर होते हैं। जैसे जानवर आम खाते हैं और उनका कोई नाम नहीं होता, वैसे ही हमें अपनी अहंकारी पहचान को छोड़ना चाहिए और अपने अस्तित्व को अहंकार से दूर रखना चाहिए॥ यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें अपने मन की आवश्यकताओं और अहंकारी भावनाओं से पूर्णता की ओर आगे बढ़ना चाहिए। हमें नाम-अपनेपन के अलावा अच्छाई और सत्य को महत्व देना चाहिए।
अंषड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि॥
इस सुंदर दोहे में, कबीर जी आत्म-विचार और आध्यात्मिक जागरण की महत्वपूर्णता पर बल देते हैं। उन्होंने इस्तारे से अपनी आंखों को व्यक्त किया है, जो हमारी पंथ को निरंतर निगरानी करती हैं, सोचती हैं और विचार करती हैं। इसी बीच, हमारी जीभ राम के नाम की इच्छा से चिह्नित होती है, जो राम की पुकार को दोहराती है।
इस संक्षेप में इस दोहे का सार छिपा है कि हमें आत्म-विचार करने और आध्यात्मिक जागरण के माध्यम से अपने मन की अवस्था को समझना चाहिए। हमारी आंखें हमारे कर्मों और पंथ के अनुसार चलती हैं, जबकि हमारी जीभ राम के नाम के लिए विचलित होती है।
यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें स्वयं को जागृत करने और आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए अपने मन को ध्यान में रखना चाहिए।
प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न दृष्टि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥
इस प्रफुल्लित दोहे में, कबीर जी प्रेम के महत्व और उसकी सच्चाई पर चर्चा करते हैं। उन्होंने यह कहा है कि प्रेम को बाहरी क्षेत्रों में नहीं बोया जा सकता, और न ही संवेदना के माध्यम से खरीदा जा सकता है। प्रेम एक व्यापार या माल की तरह नहीं है जो खरीदा और बेचा जा सकता है। इसके बजाय, यह एक निःस्वार्थ अर्पण है, ईश्वरीय इच्छा के प्रति अविचलित समर्पण है।कबीर जी ने इसके अतिरिक्त बताया है कि बड़ी महत्वपूर्णता राजा और परजा के बीच की रुचि में होती है। जो भी अपना सिर दे देता है, वही वास्तविकता में विजयी होता है॥
यह दोहा हमें यह सिखाता है कि प्रेम को बाहरी दुनियां में नहीं ढूंढ़ना चाहिए, बल्कि हमें निःस्वार्थता, समर्पण और सम्मान के माध्यम से प्रेम को अनुभव करना चाहिए॥
हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ न जाइ खुमार।
मैमंता घूँमत रहै, नाँहीं तन की सार॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ब्रह्मा रस की महत्वपूर्णता और ईश्वरीय आनंद के अनुभव का मनोहारी वर्णन करते हैं। उन्होंने कहा है कि जो भी हरि के प्रेम और भक्ति का अमृत चख चुके हैं, वे कभी भी उस मनोहारी अवस्था से पीछे नहीं हट सकते। ईश्वरीय आनंद की यह मदिरा इतनी गहरी होती है कि यह सामान्य सांसारिक सुखों को पार कर जाती है।
कबीर जी इसके अलावा यह भी सुनाते हैं कि वे मैमंता की तरह घूमते रहते हैं, शरीर की इच्छाओं और कामनाओं से अलग होते हुए। वे ईश्वर की सार को ध्यान में लगाए रहते हैं, शारीरिक बाधाओं के सीमितताओं से पार उठते हैं।
यह संक्षेप में इस दोहे में छिपा है कि कबीर जी के शब्दों के माध्यम से हमें आत्मिक आनंद की महत्ता और इसका अनुभव करने की आवश्यकता की समझ दी जाती है। यह हमें सिखाता है कि ईश्वरीय आनंद की खोज करना मानवीय सुखों और आसक्तियों से अधिक महत्वपूर्ण है। मदिरा के उपमान के माध्यम से
यह समाप्ति संग्रहण करती है कि कबीर जी के द्वारा प्रस्तुत किए गए शब्दों के माध्यम से हमें आत्मिक आनंद की महत्वपूर्णता और उसे अनुभव करने की आवश्यकता को समझाया जाता है।
इसके साथ ही यह हमें शिक्षा देता है कि दिव्य आनंद की प्राप्ति के लिए साधनों को पारित करना, शारीरिक इच्छाओं और सांसारिक आकर्षणों से परे उठना आवश्यक है। मदिरा के उपमान के माध्यम से, कबीर जी द्वारा ईश्वरीय प्रेम और उसकी अनुभूति की गहराई को दर्शाया जाता है, जो सत्यता और मुक्ति की ओर एक अद्वितीय प्रकटन है।
सतगुर की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार॥
इस गंभीर दोहे में, कबीर जी ने सतगुरु की महिमा और उनके अनंत उपकारों का सुंदर वर्णन किया है। उन्होंने कहा है कि सतगुरु की महिमा अनंत है, उनके उपकार अनंत हैं। सतगुरु के प्रकाश से हमारी आंखें अनंत खोल दी गई हैं, हमें अनंत का दर्शन हो रहा है।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें सतगुरु की महिमा की महत्ता और उनके उपकारों का महानत्व प्रतिपादित होता है। सतगुरु हमें अद्वितीय ज्ञान का प्रदान करते हैं, हमें सत्य की दिशा में प्रेरित करते हैं और हमें आत्मिक आभास की ओर ले जाते हैं। इस दोहे में सतगुरु की अनंत महिमा का सुंदर वर्णन हुआ है, जो हमें आत्मिक प्रकाश का अनुभव कराता है और हमें आत्मा के निरंतर दर्शन में लगाता है॥
कबीर ऐसा यहु संसार है, जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के व्यौहार में, झूठै रंगि न भूलि॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने संसार की वास्तविकता को सैंबल फूल की तुलना में व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि इस संसार की स्थिति एक सैंबल फूल के समान है, जिसके दिनभर के व्यवहार में झूठे रंग लगाए जाते हैं लेकिन वह अपना सच्चा रंग कभी नहीं भूलता।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें संसार की माया की समझ और ज्ञान की महत्ता का संकेत मिलता है। कबीर जी हमें यह बताते हैं कि संसार के व्यवहार में हमारे चारों ओर झूठे रंग चढ़ाए जाते हैं, लेकिन हमें अपना आदिकालिक सत्य नहीं भूलना चाहिए। यह हमें यह याद दिलाता है कि हमें अपनी आत्मिकता के साथ सही और सत्यापन करना आवश्यक है, छिपे हुए सत्य की पहचान करना हमारी मुख्य प्राथमिकता होनी चाहिए॥
जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधा−अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने शिक्षक और छात्र के संबंध की विशेषता और उसके प्रभाव को सुंदरता से व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि जैसे अंधा गुरु भी हो सकता है, लेकिन उसका चेला सच्चा और ईमानदार होता है। अंधा अंधा ठेलियों को पिंडल में गिरते रहता है, जबकि उनके छात्र का मार्ग सुरक्षित रहता है।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें शिक्षा के महत्वपूर्ण तत्वों की जागरूकता और संबंधों की प्रमुखता का ज्ञान प्राप्त होता है। कबीर जी हमें यह बताते हैं कि शिक्षक अपूर्ण या अधिकारहीन हो सकता है, लेकिन उसके छात्र की आंतरिक सत्यता और निरंतर सत्यापन विशेषता को सदैव सम्मान देना चाहिए। यह हमें यह याद दिलाता है कि एक सच्चा छात्र जीवन की अन्धकार में भी सही मार्ग पर चलता रहेगा और उसके संगठनिक विकास को आगे बढ़ाएगा॥
कबीर यहु जग अंधला, जैसी अंधी गाइ।
बछा था सो मरि गया, ऊभी चांम चटाइ॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने जगत की अंधता को एक अंधी गाय की तुलना में व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि जैसे अंधी गाय बिना देखे चलती है, वैसे ही यह जगत भी अंधा है। जो था बच्चा, सो मर गया, और जो चांदी की चांम पकड़ रही थी, वह भी छिन गई।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें जगत की भ्रमजाल और मायावीता की प्रमुखता की चेतना होती है। कबीर जी हमें यह बताते हैं कि इस संसार में अंधता है, और जो अंधेरे के भीतर चांदी की चांम पकड़ने की कोशिश करते हैं, उन्हें यहां व्यर्थ ही हानि होती है। यह हमें यह याद दिलाता है कि हमें माया की फंदों से मुक्त होना चाहिए और सत्य की दिशा में चलने के लिए आत्मनिर्भरता और ज्ञान की प्राप्ति करनी चाहिए॥
परनारी पर सुंदरी, बिरला बंचै कोइ।
खातां मीठी खाँड़ सी, अंति कालि विष होइ॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने परनारी की सुंदरता को एक मीठे खाँड़ की तुलना में व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि जैसे मीठी खाँड़ बहुत ही अल्प समय के लिए उपलब्ध होती है और अंत में विष बन जाती है, वैसे ही यह परनारी भी बहुत ही अल्पकालिक है और अंत में विषाक्त हो जाती है।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें संगीत, सौंदर्य, और भोग के आकर्षण की वेमुखता की चेतना होती है। कबीर जी हमें यह बताते हैं कि इस संसार में व्यक्तियों की आकर्षण क्षमता अल्पकालिक है और यह सुख अंततः विष बन जाता है। यह हमें यह याद दिलाता है कि हमें सुख की असाधारण और आध्यात्मिक स्वरूप की खोज करनी चाहिए, जो अंतिम तृष्णाओं और मायावी विषाक्ति से मुक्त होती है॥
खीर रूप हरि नाँव है, नीर आन व्यौहार।
हंस रूप कोइ साध है, तत का जाणहार॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने हरि के नाम को खीर की तुलना में व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि जैसे खीर में आन और व्यौहार होता है, वैसे ही हरि के नाम का महत्व और उसका व्यापारिक उपयोग होता है। कोई हंस के रूप में साधक है, वही हरि को सच्ची जानने का क्षमता रखता है।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें नाम के महत्वपूर्णता की याद दिलाई जाती है और ध्यान दिया जाता है कि ईश्वर के नाम का ज्ञान और उच्चारण हमें आत्मा के साथ एकीकृत करने की शक्ति प्रदान करते हैं। यह हमें यह याद दिलाता है कि हमें हरि के नाम की महिमा को समझने और उसे अपने जीवन में अंगीकार करने की आवश्यकता है॥
पात झरंता यों कहै, सुनि तरवर बनराइ।
अब के बिछुड़े ना मिलैं, कहुँ दूर पड़ैंगे जाइ॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने पात की झरना की तुलना में व्यक्त की है। वे कहते हैं कि जैसे पात झरना बहते हुए कहते हैं, सब बनराइ उसे सुनते हैं, वैसे ही अब जब हम अपने साथी से बिछुड़े हैं, तो हम कहते हैं कि हम दूर चले जाएंगे और वापस नहीं मिलेंगे।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें यह याद दिलाया जाता है कि जब हम अपने पार्टनर, यानी साथी से बिछुड़ जाते हैं, तो हम कहते हैं कि हम दूर चले जाएंगे और वापस नहीं मिलेंगे। यह हमें अपनी बात को स्पष्ट करने, विश्वास को जाहिर करने और दृढ़ता के साथ आगे बढ़ने की आवश्यकता है॥
जाके मुँह माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।
पुहुप बास तैं पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥
जिसके मुख और मस्तक नहीं है, न रूप है न अरूप। वह न तो रूपवान है और न रूपहीन है, पुष्प की सुगंध से भी सूक्ष्म वह अनुपम तत्त्व है। इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें यह याद दिलाया जाता है कि व्यक्ति की असली महिमा और विशेषता उसके चरित्र, नैतिकता, और भावनाओं में होती है, और न कि उसके बाहरी रूप में। हमें एक अनूपम और अमूल्यता से युक्त चरित्र का विकास करने की आवश्यकता है, जो अप्रतिम और अद्वितीय होता है॥
पाणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति।
एक दिनाँ छिप जाँहिगे, तारे ज्यूं परभाति॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने पानी की बुदबुदाहट की तुलना में हमारी जाति का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि हमारी जाति जैसे पानी की बूँदें हैं, जो एक दिन में छिप जाती हैं, वैसे ही तारों की प्रकाशमय प्रभाति की तरह।
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें यह याद दिलाया जाता है कि हमारी जाति या स्थान का महत्व हमारे भावों, कार्यों, और अद्यतन जीवन में होता है। हमें तारों की प्रकाशमय प्रभाति की तरह, अपार प्रकाश और उज्ज्वलता बनानी चाहिए और अपने असीमित पोटेंशियल को प्रकट करने के लिए उच्च स्तर पर उठने की आवश्यकता है॥
बाग़ों ना जा रे ना जा, तेरी काया में गुलज़ार।
सहस-कँवल पर बैठ के, तू देखे रूप अपार॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने बागों की तुलना में इंसान की महत्वपूर्णता को व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि बागों में जाने की बजाय तेरी काया में गुलजार बन जा, अर्थात् अपने अंतरंग रूप को पहचानें। बस सहस-कंवल (सरस्वती के पदार्थों पर बैठने वाला) पर बैठकर तू अपार रूप को देख सकेगा॥
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें यह याद दिलाया जाता है कि बाहरी सुंदरता की बजाय, हमें अपने अंतरंग रूप को महत्व देना चाहिए। जब हम अपनी आत्मा के साथ सहस-कंवल पर बैठते हैं, तो हम अपार और अनंत रूप को पहचानते हैं॥
अंतरि कँवल प्रकासिया, ब्रह्म वास तहाँ होइ।
मन भँवरा तहाँ लुबधिया, जाँणौंगा जन कोइ॥
इस प्रभावशाली दोहे में, कबीर जी ने आत्मा की प्रकाशमयता और ईश्वर के आवास के विषय में व्यक्ति को प्रेरित किया है। वे कहते हैं कि अंतरंग कंवल में ब्रह्म निवास करता है, अर्थात् परमात्मा वहाँ विराजमान होता है। मन वहाँ भँवरा की तरह चक्रवाती होता है, लेकिन केवल कुछ जन ही उसे समझ सकते हैं॥
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें यह याद दिलाया जाता है कि आत्मा की प्रकाशमयता हमारे अंतरंग में होती है और ईश्वर का आवास हमारे हृदय में होता है। हमारा मन चक्रवाती भँवरा की तरह लुब्ध हो जाता है, लेकिन केवल कुछ व्यक्ति ही इसे समझ सकते हैं॥
समंदर लागी आगि, नदियाँ जलि कोइला भई।
देखि कबीरा जागि, मंछी रूषाँ चढ़ि गई।
इस दोहे में, कबीर जी ने समंदर और नदियों के माध्यम से एक अद्भुत संदेश दिया है। उन्होंने कहा है कि जब समंदर में आग लगी, तो नदियाँ उसे भी जला देती हैं। इसे देखकर कबीर जागते हैं, परंतु मंछी रूषा हो जाती है और उड़ जाती है॥
इस उत्कृष्ट संक्षेप में, हमें यह याद दिलाया जाता है कि जब एक बड़ी समस्या या आपदा होती है, तो उसका प्रभाव सभी को महसूस होता है। हमें समाधान के लिए सामर्थ्य और साहस की आवश्यकता होती है, जो हमें जागरूक और सक्रिय बनाते हैं॥
अस्वीकरण: ऊपर दी गई निष्कर्ष दिए गए टिप्पणियाँ दी गई कविता और साहित्यिक संदर्भ पर आधारित हैं। ये एक व्यक्तिगत समझ और दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का प्रयास हैं। इन निष्कर्षों की व्याख्या व्यक्तिगत मतभेदों, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और व्यक्तिगत समझ पर निर्भर कर सकती हैं। ये निष्कर्ष अपारंपरिक या निर्वाचित व्याख्याओं के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं करने चाहिए और पाठकों को प्रेरित किया जाता है कि वे और गद्यांश की अध्ययन करें और अपने स्वयं के निष्कर्ष निकालें।