GEETA KE UPDESH | गीता के उपदेश हिंदी में
गीता के उपदेश हिंदी में
श्रीकृष्ण के उपदेश
(GEETA KE UPDESH)
भागवत शब्द में पंचमहाभूतों का संकेत है। भागवत= भूमि + अग्नि + गगन + वायु + तोय अर्थात जल से है।
श्रीकृष्ण का कहना है कि मनुष्य को अपने आप को ईश्वर में विलीन कर देना चाहिए। ईश्वर के अलावा मनुष्य का कोई महत्व नहीं होता है। इसके साथ ही, हमें यह स्वीकार करके कर्म करना चाहिए कि हम भी किसी के नहीं हैं। भोग से प्राप्त होने वाला सुख क्षणिक होता है, जबकि त्याग में स्थायी आनंद प्राप्त होता है।
श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण का कहना है कि यदि किसी काम को करने में डर लगे, तो यह आपके लिए एक संकेत है कि आपका काम वास्तव में साहस से भरा हुआ है।
गीता के अनुसार, नेत्र केवल हमें दृष्टि प्रदान करते हैं, परंतु हमें यह तय करना होता है कि हम कब किसमें क्या देखते हैं, यह हमारी भावनाओं पर निर्भर करता है!
श्रीकृष्ण का कहना है कि मनुष्य को अपने आप को ईश्वर में विलीन कर देना चाहिए। ईश्वर के सिवाय मनुष्य का कोई महत्व नहीं होता। इसके साथ ही, हमें यह स्वीकार करके कर्म करना चाहिए कि हम भी किसी के नहीं हैं।
भोग से प्राप्त होने वाली सुख संक्षेपिक होती है, जबकि त्याग में स्थायी आनंद प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सत्संग ईश्वर की कृपा से होता है, परंतु कुसंगति में मनुष्य अपने कर्मों से पीड़ित होता है।
गीता के अनुसार, जीत और हार सिर्फ आपकी सोच पर निर्भर करती हैं। यदि आप मान लेते हैं तो हार होगी, और यदि आप ठान लेते हैं तो जीत होगी।
भगवद्गीता के उपदेश वो परम सत्य हैं, जिसे अपनाकर हर व्यक्ति दुःख-क्लेश मुक्त होकर सफल-सुखद जीवन जी सकता है।
इस लेख में गीता की 15 ऐसी बातें बताई गई हैं, जिसके ज्ञान की जरूरत हर व्यक्ति को पड़ती है। मनुष्य का संघर्ष जितना बाहरी होता है, उतना ही आंतरिक भी चलता रहता है। सोच और कर्म का संतुलन ही सफल जीवन का मंत्र है। सही-गलत और उचित निर्णय की दुविधा में फंसे व्यक्ति को गीता के इन उपदेश से मानसिक संबल और धैर्य मिलता है।
गीता के उपदेश हिंदी में
1.विश्वास की शक्ति:
तुम अपने विश्वासों की उत्पत्ति हो। जिस चीज़ पर तुम विश्वास रखते हो, उसी के रूप में तुम बन जाते हो। जो अपने आप पर विश्वास करके लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते रहते हैं, उन्हें निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होती है। अगर व्यक्ति अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण मन से समर्पित हो जाता है और कर्म करने से आनंद प्राप्त करता है, तो सफलता उससे दूर नहीं रहती।
2. मृत्यु से भय व्यर्थ है:
2. मृत्यु से भय व्यर्थ है:
प्रत्येक व्यक्ति के मन में मृत्यु का भय होता है। इस संसार के निर्माण के साथ ही, जन्म-मृत्यु का चक्र चलता आ रहा है। यह प्रकृति का नियम है। इस सत्य को स्वीकार करके भयरहित जीना चाहिए। किसी भी आने वाले पल के बारे में कुछ नहीं पता होता, लेकिन इस संदेह में भयभीत रहने से जीवन नहीं जिया जा सकता।
3. कर्म सबसे ऊपर आता है:
3. कर्म सबसे ऊपर आता है:
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्य कर्म करने के लिए ही पैदा हुआ है और कर्म किए बिना कोई रह नहीं सकता। फल की चिंता करना व्यर्थ है, क्योंकि इससे मनुष्य का मन काम से भटकने लगता है। किसी कर्म से सफलता नहीं मिलती तो क्या हुआ, असफलता भी ज्ञान के द्वार खोलती है। अगर फल की चिंता किए बिना कर्म करते रहोगे, तो सफलता और मन की शांति जीवन भर तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगी। जो कर्मफल से विरक्त होकर कर्म करता जाता है, उसका आध्यात्मिक ज्ञान बढ़ता जाता है।
4. हमेशा स्वार्थी होना गलत है:
4. हमेशा स्वार्थी होना गलत है:
जो व्यक्ति हमेशा स्वार्थ प्रेरित होकर फल की चिंता करते हुए कर्म करते हैं और सिर्फ फल ही उन्हें कर्म करने को प्रेरित करता है, ऐसे लोग दुखी और बेचैन रहते हैं क्योंकि उनका दिमाग हमेशा इसी उलझन में फंसा रहता है कि उन्हें क्या फल मिलेगा। स्वार्थी व्यक्ति सुखी नहीं रह पाता और ऐसे व्यक्ति से कोई भी संबंध नहीं बनाना चाहता। इसलिए हमें स्वार्थ से ऊपर उठना चाहिए और दूसरों का हित भी सोचना चाहिए।
5. क्रोध से सबका नुकसान होता है:
क्रोध या गुस्सा करना व्यक्ति के दिमाग में अशांति पैदा करता है। जब व्यक्ति आवेश में विवेकहीन होता है, तो बार-बार अपना ही नुकसान करता है या फिर अपनी मानसिक शांति को खोकर खुद को कष्ट पहुंचाता है। क्रोध की ज्वाला से बुद्धि और तर्क नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति बिना सोचे-समझे अपने अहंकार की पूजा करने में लग जाता है। गुस्सा व्यक्ति की विचारशक्ति को मंद कर देता है और भ्रम को उत्पन्न करता है।
6. मन पर नियंत्रण रखना जरूरी क्यों है:
6. मन पर नियंत्रण रखना जरूरी क्यों है:
मन का स्वभाव है कि वह आसानी से भटक जाता है। यदि जीवन को सफलता की ओर ले जाना है, तो मन को नियंत्रित करना बहुत महत्वपूर्ण है। श्रीकृष्ण ने कहा है कि धीरे-धीरे, प्रयास करके मन को वश में किया जा सकता है। मन को नियंत्रित करने से दिमाग की शक्ति केंद्रित होती है, जिससे कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। अगर आप मन को नियंत्रित नहीं करते हैं, तो यह आपका सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है।
7 .भगवानों में कोई छोटा-बड़ा नहीं:
7 .भगवानों में कोई छोटा-बड़ा नहीं:
इस संसार में ईश्वर कई रूपों में प्रकट होते हैं। इन सभी रूपों में कोई भी छोटा या बड़ा नहीं है, परमात्मा का प्रत्येक रूप समान है। जैसे हर नदी अंत में सागर में मिलती है, वैसे ही हर धर्म, मत और संप्रदाय की धाराएं परमात्मा के रूप में सम्पूर्णता में मिल जाती हैं। यह संसार परमपिता की स्वरूपता है, वह हर अणु में उपस्थित है।
8. कर्तव्य पालन जरूरी है :
8. कर्तव्य पालन जरूरी है :
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताया गया है कि हर व्यक्ति को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। यही धर्म की परिभाषा है। अपने कर्तव्य का पालन न करने से मन में अशांति और दुख होता है। अपनी पसंद-नापसंद और मोह-बैर को छोड़कर अपना कर्तव्य निभाएं। किसी अन्य व्यक्ति के कर्म में कितनी भी आकर्षणा हो, उसके प्रलोभन में न पड़ें। दुख में रहते हुए भी अपना कर्तव्य निभाना दूसरों की नकल करने से बेहतर है।
अपने कर्म और कर्तव्य का पालन ही सही मार्ग है, क्योंकि कर्म करना हमेशा अकर्मण्यता से बेहतर है। कर्तव्य में दोष देखकर पीछे न हटें, क्योंकि हर कर्म में कोई न कोई छोटा-बड़ा दोष हो सकता है, जैसे अग्नि के साथ धूआँ भी होता है। सदैव कर्म करें, कर्म करने से पहले विचार करें लेकिन अत्यधिक विश्लेषण न करें। अधिक विश्लेषण संदेह और अकर्मण्यता को जन्म देता है।
9) परमात्मा को अनुभव करने के लिए ध्यान की आवश्यकता होती है:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि शारीरिक कर्म से ज्ञान का मार्ग ऊँचा है और ज्ञान मार्ग से भी ऊपर ध्यान मार्ग होता है। ध्यान मार्ग पर अग्रसर होकर हम परमात्मा को अनुभव कर सकते हैं। जब कोई व्यक्ति मन और इंद्रियों को शांत करके, पूर्ण विश्वास के साथ अपना ध्यान भगवान में लगाता है, तो उसे परमात्मा का ज्ञान और अस्तित्व अवश्य होता है।
जो हर जगह, हर जीव-मनुष्य में ईश्वर को देखता है, सबके हित में लगा रहता है, उस पर परमपिता अवश्य कृपा करते हैं। चाहे ज्ञान मार्ग हो या भक्ति मार्ग, समर्पण, प्रेम, और विश्वास ही हमें ईश्वर के प्रकाश की ओर ले जाते हैं। बहुत से लोग भगवान की पूजा करते हैं, लेकिन उन्हें शांति क्यों नहीं मिलती? इसलिए कि भगवान आपके मन में निवास करते हैं, उन्हें पता होता है कि आपका भाव क्या है।
10. जो अधिक शक करता है, वह कभी खुश नहीं रह सकता।
श्रीकृष्ण गीता में यह कहा गया है कि संशय (शक) करने वाले का नाश हो जाता है, इसलिए हमें संदेहों से बचना चाहिए। जब हम अधिक संदेह करते हैं, तो मन की शांति टूट जाती है और हम भ्रमित होकर अपने संबंधों को नष्ट कर देते हैं। जो शक करने की आदत पड़ जाती है, उसे इस लोक या परलोक में भी शांति नहीं मिलती। सत्य की खोज करना ठीक है, लेकिन बिना सच जाने, कल्पनावश शंका करने का परिणाम दुख, क्लेश, और पश्चाताप के रूप में होता है।
11.अति करने से बचना चाहिए।
जीवन में संतुलन बहुत महत्वपूर्ण है। किसी भी चीज की अति करना उचित नहीं होता। हमें सुख के आने पर अवहेलना नहीं करनी चाहिए और दुख के आने पर निराशा में रहना उचित नहीं है। इन दोनों में से कोई भी पथ गलत नहीं है। असंतुलन जीवन की गति और दिशा को प्रभावित करता है, जिससे अनावश्यक कष्ट और दुःखों का उद्भव होता है। वह व्यक्ति जिसके मन, विचार और कर्म में संतुलन है, वह ज्ञान प्राप्त करता है और ज्ञान से ही वह सदैव शांति और संतोष प्राप्त करता है।
12. ज्ञान और मुक्ति केवल सही कर्म से ही संभव हैं।
भगवद्गीता में कर्मयोग के सिद्धांत का उपदेश दिया गया है कि संसार से विरक्त होना ही मुक्ति का मार्ग नहीं है। व्यक्ति संसार में रहकर एक गृहस्थ के रूप में अपने कर्मों का निष्पादन करते हुए, कर्मफल से आसक्ति त्यागकर मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। सही विचार और योग्य कर्म भी आसक्ति को समाप्त करने में सक्षम होते हैं। अच्छे कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाते, चाहे यह धार्मिक जगत हो या परलोक।
13 .ज्ञान और कर्म एक ही हैं।
एक अज्ञानी व्यक्ति कर्म और ज्ञान को अलग-अलग समझता है, जबकि एक ज्ञानी जानता है कि वे दोनों एक ही वस्तु हैं। लोग ज्ञान के बारे में बातें करते हैं, लेकिन उसका पालन नहीं करते। बिना पालन किए ज्ञान शून्य रह जाता है, और ज्ञान का अनुभव नहीं होता। भगवद्गीता कहती है कि ज्ञान केवल पढ़ने के लिए नहीं होता, बल्कि उसे अनुभव करने के लिए होता है, और अनुभव बिना कर्म किए प्राप्त नहीं होता।
14 .इच्छा दुःखों का मूल कारण है।
इस संसार में, जो भी वस्तुएं सांसारिक सुख की श्रेणी में आती हैं, उनका आदि और अंत होता है। इन सांसारिक सुखों का अंत दुःख, कष्ट, और दुर्गति के रूप में होता है। इच्छाओं का अंत नहीं होता है, जब एक इच्छा पूरी होती है, तो दूसरी नई इच्छा उदय हो जाती है। हर इच्छा से प्रेरित होकर कर्म करना गलत है, क्योंकि इस प्रकार अनुचित क्रियाएं भी हो सकती हैं। इच्छाओं से विचलित न होने का प्रयास करें, उन्हें एक निर्लेप दर्शक की तरह देखें और वे स्वतः ही चली जाएँगी।
15.ईश्वर ही सर्वोच्च सहायता का स्रोत है।
परम पिता ही हमारे आधार और स्वयं हैं। इस संसार में कोई भी अकेला नहीं है। जो मनुष्य ईश्वर में विश्वास रखकर कर्मपथ पर आगे बढ़ता है, वह सदा शांति, सुख, और मुक्ति प्राप्त करता है। भूत और भविष्य की चिंता करना व्यर्थ है, क्योंकि सत्यता वर्तमान में ही स्थित है। जो व्यक्ति पूर्ण समर्पण के साथ ईश्वर की शरण में आता है, उसका परमात्मा द्वारा कल्याण अवश्य होता है।
गीता के अध्याय और उनके नाम
गीता में 18 अध्याय हैं। हर अध्याय का अलग-अलग नाम है। ये नाम इस प्रकार हैं :
1. पहला अध्याय – अर्जुनविषाद योग
2. दूसरा अध्याय – सांख्ययोग
3. तीसरा अध्याय – कर्मयोग
4. चौथा अध्याय – ज्ञान-कर्म-सन्यास योग
5. पाँचवाँ अध्याय – कर्म सन्यास योग
6. छठवाँ अध्याय – आत्मसंयम योग
7. सातवाँ अध्याय – ज्ञान-विज्ञान योग
8. आठवाँ अध्याय – अक्षरब्रह्म योग
9. नवां अध्याय – राजगुह्य योग
10. दसवां अध्याय – विभूति योग
11. ग्यारहवाँ अध्याय – विश्वरूपदर्शन योग
12. बारहवाँ अध्याय – भक्तियोग
13. तेरहवाँ अध्याय – क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
14. चौदहवाँ अध्याय – गुणत्रय विभाग योग
15. पंद्रहवाँ अध्याय – पुरुषोत्तम योग
16. सोलहवां अध्याय – दैवासुर सम्पद्विभाग योग
17. सत्रहवाँ अध्याय – श्रद्धात्रय विभाग योग
18. अठारहवाँ अध्याय – मोक्ष सन्यास योग
गीता नाम ‘गीत’ शब्द से बना है, जोकि एक तरह की पद्य रचना है। विद्वानों के अनुसार गीता नाम का अर्थ – दैवीय गान, स्वर्गीय गीत या ईश्वर के वचन माना गया है। गीता के अन्य नाम ईश्वर गीता, अनंत गीता, हरि गीता, व्यास गीता हैं।
श्रीमद शब्द किसी को उच्च श्रेणी का आदर देने के लिए भी नाम के पहले लगाया जाता है, जैसे कि कोई धार्मिक ग्रंथ, तीर्थ, गुरु या आचार्य के नाम के साथ लगाया जाता है। श्रीमद शब्द का अर्थ है जो लक्ष्मी और ऐश्वर्य संपन्न है अथवा मंगलकारी और ज्ञान का सागर है।
Disclaimer: यहां प्रदान की गई जानकारी और मान्यताएं केवल मान्यताओं और ज्ञान पर आधारित हैं। सहित्य प्रवाह किसी भी तरह की मान्यता या ज्ञान की पुष्टि नहीं करता है। किसी भी जानकारी या मान्यता को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह लेना अत्यधिक आवश्यक है।
अपने कर्म और कर्तव्य का पालन ही सही मार्ग है, क्योंकि कर्म करना हमेशा अकर्मण्यता से बेहतर है। कर्तव्य में दोष देखकर पीछे न हटें, क्योंकि हर कर्म में कोई न कोई छोटा-बड़ा दोष हो सकता है, जैसे अग्नि के साथ धूआँ भी होता है। सदैव कर्म करें, कर्म करने से पहले विचार करें लेकिन अत्यधिक विश्लेषण न करें। अधिक विश्लेषण संदेह और अकर्मण्यता को जन्म देता है।
9) परमात्मा को अनुभव करने के लिए ध्यान की आवश्यकता होती है:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि शारीरिक कर्म से ज्ञान का मार्ग ऊँचा है और ज्ञान मार्ग से भी ऊपर ध्यान मार्ग होता है। ध्यान मार्ग पर अग्रसर होकर हम परमात्मा को अनुभव कर सकते हैं। जब कोई व्यक्ति मन और इंद्रियों को शांत करके, पूर्ण विश्वास के साथ अपना ध्यान भगवान में लगाता है, तो उसे परमात्मा का ज्ञान और अस्तित्व अवश्य होता है।
जो हर जगह, हर जीव-मनुष्य में ईश्वर को देखता है, सबके हित में लगा रहता है, उस पर परमपिता अवश्य कृपा करते हैं। चाहे ज्ञान मार्ग हो या भक्ति मार्ग, समर्पण, प्रेम, और विश्वास ही हमें ईश्वर के प्रकाश की ओर ले जाते हैं। बहुत से लोग भगवान की पूजा करते हैं, लेकिन उन्हें शांति क्यों नहीं मिलती? इसलिए कि भगवान आपके मन में निवास करते हैं, उन्हें पता होता है कि आपका भाव क्या है।
10. जो अधिक शक करता है, वह कभी खुश नहीं रह सकता।
श्रीकृष्ण गीता में यह कहा गया है कि संशय (शक) करने वाले का नाश हो जाता है, इसलिए हमें संदेहों से बचना चाहिए। जब हम अधिक संदेह करते हैं, तो मन की शांति टूट जाती है और हम भ्रमित होकर अपने संबंधों को नष्ट कर देते हैं। जो शक करने की आदत पड़ जाती है, उसे इस लोक या परलोक में भी शांति नहीं मिलती। सत्य की खोज करना ठीक है, लेकिन बिना सच जाने, कल्पनावश शंका करने का परिणाम दुख, क्लेश, और पश्चाताप के रूप में होता है।
11.अति करने से बचना चाहिए।
जीवन में संतुलन बहुत महत्वपूर्ण है। किसी भी चीज की अति करना उचित नहीं होता। हमें सुख के आने पर अवहेलना नहीं करनी चाहिए और दुख के आने पर निराशा में रहना उचित नहीं है। इन दोनों में से कोई भी पथ गलत नहीं है। असंतुलन जीवन की गति और दिशा को प्रभावित करता है, जिससे अनावश्यक कष्ट और दुःखों का उद्भव होता है। वह व्यक्ति जिसके मन, विचार और कर्म में संतुलन है, वह ज्ञान प्राप्त करता है और ज्ञान से ही वह सदैव शांति और संतोष प्राप्त करता है।
12. ज्ञान और मुक्ति केवल सही कर्म से ही संभव हैं।
भगवद्गीता में कर्मयोग के सिद्धांत का उपदेश दिया गया है कि संसार से विरक्त होना ही मुक्ति का मार्ग नहीं है। व्यक्ति संसार में रहकर एक गृहस्थ के रूप में अपने कर्मों का निष्पादन करते हुए, कर्मफल से आसक्ति त्यागकर मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। सही विचार और योग्य कर्म भी आसक्ति को समाप्त करने में सक्षम होते हैं। अच्छे कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाते, चाहे यह धार्मिक जगत हो या परलोक।
13 .ज्ञान और कर्म एक ही हैं।
एक अज्ञानी व्यक्ति कर्म और ज्ञान को अलग-अलग समझता है, जबकि एक ज्ञानी जानता है कि वे दोनों एक ही वस्तु हैं। लोग ज्ञान के बारे में बातें करते हैं, लेकिन उसका पालन नहीं करते। बिना पालन किए ज्ञान शून्य रह जाता है, और ज्ञान का अनुभव नहीं होता। भगवद्गीता कहती है कि ज्ञान केवल पढ़ने के लिए नहीं होता, बल्कि उसे अनुभव करने के लिए होता है, और अनुभव बिना कर्म किए प्राप्त नहीं होता।
14 .इच्छा दुःखों का मूल कारण है।
इस संसार में, जो भी वस्तुएं सांसारिक सुख की श्रेणी में आती हैं, उनका आदि और अंत होता है। इन सांसारिक सुखों का अंत दुःख, कष्ट, और दुर्गति के रूप में होता है। इच्छाओं का अंत नहीं होता है, जब एक इच्छा पूरी होती है, तो दूसरी नई इच्छा उदय हो जाती है। हर इच्छा से प्रेरित होकर कर्म करना गलत है, क्योंकि इस प्रकार अनुचित क्रियाएं भी हो सकती हैं। इच्छाओं से विचलित न होने का प्रयास करें, उन्हें एक निर्लेप दर्शक की तरह देखें और वे स्वतः ही चली जाएँगी।
15.ईश्वर ही सर्वोच्च सहायता का स्रोत है।
परम पिता ही हमारे आधार और स्वयं हैं। इस संसार में कोई भी अकेला नहीं है। जो मनुष्य ईश्वर में विश्वास रखकर कर्मपथ पर आगे बढ़ता है, वह सदा शांति, सुख, और मुक्ति प्राप्त करता है। भूत और भविष्य की चिंता करना व्यर्थ है, क्योंकि सत्यता वर्तमान में ही स्थित है। जो व्यक्ति पूर्ण समर्पण के साथ ईश्वर की शरण में आता है, उसका परमात्मा द्वारा कल्याण अवश्य होता है।
गीता के अध्याय और उनके नाम
गीता में 18 अध्याय हैं। हर अध्याय का अलग-अलग नाम है। ये नाम इस प्रकार हैं :
1. पहला अध्याय – अर्जुनविषाद योग
2. दूसरा अध्याय – सांख्ययोग
3. तीसरा अध्याय – कर्मयोग
4. चौथा अध्याय – ज्ञान-कर्म-सन्यास योग
5. पाँचवाँ अध्याय – कर्म सन्यास योग
6. छठवाँ अध्याय – आत्मसंयम योग
7. सातवाँ अध्याय – ज्ञान-विज्ञान योग
8. आठवाँ अध्याय – अक्षरब्रह्म योग
9. नवां अध्याय – राजगुह्य योग
10. दसवां अध्याय – विभूति योग
11. ग्यारहवाँ अध्याय – विश्वरूपदर्शन योग
12. बारहवाँ अध्याय – भक्तियोग
13. तेरहवाँ अध्याय – क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
14. चौदहवाँ अध्याय – गुणत्रय विभाग योग
15. पंद्रहवाँ अध्याय – पुरुषोत्तम योग
16. सोलहवां अध्याय – दैवासुर सम्पद्विभाग योग
17. सत्रहवाँ अध्याय – श्रद्धात्रय विभाग योग
18. अठारहवाँ अध्याय – मोक्ष सन्यास योग
गीता नाम का अर्थ क्या है | Meaning of Gita in hindi
गीता नाम ‘गीत’ शब्द से बना है, जोकि एक तरह की पद्य रचना है। विद्वानों के अनुसार गीता नाम का अर्थ – दैवीय गान, स्वर्गीय गीत या ईश्वर के वचन माना गया है। गीता के अन्य नाम ईश्वर गीता, अनंत गीता, हरि गीता, व्यास गीता हैं।
श्रीमदभगवत शब्द की व्याख्या जानें | Meaning of Shrimadbhagwat in hindi
श्रीमद शब्द किसी को उच्च श्रेणी का आदर देने के लिए भी नाम के पहले लगाया जाता है, जैसे कि कोई धार्मिक ग्रंथ, तीर्थ, गुरु या आचार्य के नाम के साथ लगाया जाता है। श्रीमद शब्द का अर्थ है जो लक्ष्मी और ऐश्वर्य संपन्न है अथवा मंगलकारी और ज्ञान का सागर है।
Disclaimer: यहां प्रदान की गई जानकारी और मान्यताएं केवल मान्यताओं और ज्ञान पर आधारित हैं। सहित्य प्रवाह किसी भी तरह की मान्यता या ज्ञान की पुष्टि नहीं करता है। किसी भी जानकारी या मान्यता को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह लेना अत्यधिक आवश्यक है।