SITA : कथा माता सीता की | माता सीता की कठिनाइयों की कहानी
SITA : कथा माता सीता की - माता सीता की कठिनाइयों की कहानी
माता सीता की कठिनाइयों की कहानी:
यह कविता माता सीता के त्याग, साहस, कठिनाई और पवित्रता पर आधारित है। इसमें माता सीता के जीवन के संघर्ष को दर्शाने की एक छोटी सी कोशिश की गई है। वह अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना करती है, लेकिन उनका त्याग, साहस और पवित्रता उसे महान बनाते हैं। माता सीता की उदात्तता, संयम, और धार्मिकता उसे एक प्रेरणास्रोत बनाती हैं और हमें उसके महान गुणों का आदर करने को प्रेरित करती हैं। यह कविता माता सीता के बारे में एक संक्षेप में उनके वीरता और पवित्रता को प्रस्तुत करने का प्रयास करती है।कथा माता सीता की
छह वर्ष की आयु में मेरे पिता ने मेरा विवाह किया,
बचपन में ही पिता ने मेरे ससुराल मुझे क्यों भेज दिया?
ससुराल में मैंने सास ससुर व पति की अपने सेवा की,
फिर भी मेरे सास ससुर ने, वनवास मुझे क्यों भेज दिया?
था वचन वो मेरे स्वामी का,इसीलिए मैंने उनका साथ दिया।
१३ वर्ष तक सेवा की, वन में अपने स्वामी की,
रावण ने मेरा हरण किया, लंका में मुझको कैद किया।
काश शिक्षा देते सास्त्र की, तो स्वयं की मैं रक्षा करती,
रावण के सीने में मैं ,वानो की वर्षा करती।
वानर सेना के साथ श्रीराम ने मेरी रक्षा की,
पर उठाकर प्रश्न मेरे चरित्र पर, फिर से मुझको क्यों कैद किया।
अग्नि परीक्षा मेरी थी, तुम्हारे क्यों आँसू निकले,
मुझे पाकर पवित्र श्रीराम मुझे,
लेकर फिर अयोध्या क्यों निकले?
लगा था मेरे दुख अब, खत्म होने वाले हैं,
क्या पता था श्रीराम, एक और परीक्षा लेने वाले हैं।
लेकर उदाहरण किसी और का,राम ने मुझको त्याग दिया,
देवर को भेजा साथ मेरे,वन में अकेला क्यों छोड़ दिया?
कह पाती मेरे राम से, कि मैं माँ बनने वाली हूँ,
उससे पहले ही राम ने ,वनवास मुझे क्यों भेज दिया?
देकर बलिदान मेरे सम्मान का, श्रीराम भरोसे साथ गयी,
फिर भी मेरे राम ने अकेले मुझको छोड़ दिया।
अकेले अपने बेटों को ,पैदा कर मैंने पाला था,
फिर भी दशरथपुत्र को, वही सवाल उठाना था।
भारी सभा में सबने मिलकर जब, माता का अपमान किया,
इसे कैसे मैं सहन करूँ? अब बहुत हुआ, अब बहुत हुआ,
सभा में मैंने समक्ष सभी के, अपने जीवन का त्याग किया,
नहीं देनी अब अग्नि परीक्षा, बस यही स्वीकार किया।
मेरे कथा को व्यथा नहीं, अपने लिए उदाहरण समझे,
क्या गलती हुई थी मुझसे, जो मैंने ये सब झेला था।
समाते हुए पृथ्वी में मेरे, चारों तरफ अपनों का मेला था।
थे अपने वो सब जिनपर मैंने, जीवन अपना वार दिया।
अग्नि परीक्षा दे देकर, आत्मसम्मान को अपने त्याग दिया।
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